Edited By Jyoti,Updated: 10 Jun, 2018 12:38 PM
स्वर्ग-नरक शास्त्रों में निपुण, प्रसिद्ध ज्ञानी एवं प्रख्यात संत श्री देवाचार्य के एक शिष्य का नाम रवींद्रनाथ था। एक शाम रवींद्रनाथ अपने साथियों के साथ बगीचे में टहल रहे थे और आपस में वे किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे
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स्वर्ग-नरक शास्त्रों में निपुण, प्रसिद्ध ज्ञानी एवं प्रख्यात संत श्री देवाचार्य के एक शिष्य का नाम रवींद्रनाथ था। एक शाम रवींद्रनाथ अपने साथियों के साथ बगीचे में टहल रहे थे और आपस में वे किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। चर्चा का विषय था-स्वर्क-नरक। किसी एक साथी ने रवींद्रनाथ से पूछा, ‘‘क्यों मित्र! क्या मैं स्वर्ग जाऊंगा?’’
रवींद्रनाथ ने उत्तर देते हुए कहा, ‘‘जब ‘मैं’ जाएगा, तभी आप स्वर्ग जाओगे।’’
उनके मित्र ने सोचा कि रवींद्रनाथ को अभिमान हो गया है और सारे मित्रों ने मिलकर रवींद्रनाथ की शिकायत अपने गुरु श्री देवाचार्य से कर दी।
गुरुदेव को पता था कि उनका शिष्य रवींद्रनाथ न केवल निरहंकारी है बल्कि अल्प शब्दों में गंभीर ज्ञान की बातें बोलने वाला है। उन्होंने रवींद्रनाथ को बुलाकर इस घटना के बारे में पूछा और उन्होंने अपना सिर हिलाकर इस बात की पुष्टि की। अन्य शिष्यों में इस घटना को देखने के बाद कानाफूसी शुरू हो गई। श्री देवाचार्य ने मुस्कुराते हुए दोबारा वही प्रश्र पूछा, ‘‘अच्छा वह बताओ रवींद्रनाथ! क्या तुम स्वर्ग जाओगे?’’
रवींद्रनाथ ने कहा-‘‘गुरुदेव! जब ‘मैं’ जाएगा तभी तो मैं स्वर्ग जा पाऊंगा।’’
श्री देवाचार्य शिष्यों को समझाते हुए बोले, ‘‘शिष्यो, इनके कहने का मतलब है जब ‘मैं’ जाएगा यानी जब अहंकार जाएगा, तभी तो हम स्वर्ग के अधिकारी बन पाएंगे। जब-जब आपके मन में ये बातें आएंगी कि मैंने ऐसा किया, मैंने इतने पुण्य किए, मैंने सब किया। उस स्थिति में स्वर्ग के बारे में सोचना भी गलत है।’’
शिक्षा: इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि जब तक आदमी के अंदर अहंकाररूपी ‘मैं’ जिंदा है तब तक वह समर्पण नहीं कर पाता और जब समर्पण करता है तो उसकी जिंदगी उसकी अपनी नहीं रह जाती। तभी वह सच्चे अर्थों में स्वर्ग का अधिकारी हो पाता है।
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