जैन कवि बनारसी दास की इस सीख ने एक चोर को बनाया संत

Edited By Lata,Updated: 22 Dec, 2019 03:59 PM

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जैन कवि बनारसी दास स्वभाव से बेहद सरल थे और हमेशा लोगों की भलाई बारे सोचा करते थे।

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जैन कवि बनारसी दास स्वभाव से बेहद सरल थे और हमेशा लोगों की भलाई बारे सोचा करते थे। एक रात वह खाना-पीना निपटाकर अपने बिस्तर पर सोए। आधी रात के आसपास कमरे में कुछ खटपट की आवाज हुई। उन्होंने देखा तो पाया कि घर में एक चोर घुसा हुआ था। चोर को देखते ही उनकी आंखों से नींद तो गायब हो गई लेकिन वह कुछ बोले नहीं, बस चुपचाप बिस्तर पर पड़े रहे। चोर ने समझा कि कोई उसे देख नहीं पा रहा है। अच्छा मौका जानकर उस चोर ने सामान कमरे में इकट्ठा किया और सबको एक चादर में लपेट दिया लेकिन सामान काफी ज्यादा था। इसके चलते गठरी का बोझ इतना हो गया कि चोर उसे उठा ही नहीं पा रहा था। चोर की विवशता पर बनारसी दास को तरस आ गया। 
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वह बोले, ''भाई, तूने यह जो सामान बांधा है वह मेरे लिए व्यर्थ है। तू इसे नि:संकोच ले जा। मैं सामान उठाने में तेरी मदद करता हूं। तू डर मत। 

इतना सुनना था कि चोर ताज्जुब से काठ हो गया। फिर भी साहस करके अपनी जगह पर खड़ा रहा। बनारसी दास ने सामान की गठरी उसके सिर पर रखवाने में सहायता कर दी। चोर के लिए यह बेजोड़ अनुभव था। कैसा भी छोटा-मोटा सामान हो चोर को इस तरह कौन ले जाने देता है? चोर घर पहुंचा तो मां को अपना अनोखा अनुभव बताया। सुनते ही उसकी मां ने अपना सिर पीट लिया। बोली, ''बेटे, तू कितना निर्लज्ज निकला कि किसी देवता जैसे पुरुष का सामान चुरा लाया? कैसे बेटे की मां हूं मैं? फौरन जा और गठरी को जैसी की तैसी वापस दे आ। क्या सोच रहा होगा वह संत?
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मां की बात सुनकर चोर पश्चाताप करता हुआ कवि बनारसी दास के घर पहुंचा और उनसे क्षमा मांगी। इसके बाद उसने चोरी छोड़ दी और अध्यात्म की ओर मुड़ गया।

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