जीवन में करें इस प्रकार का चिंतन, भविष्य में आएगा काम

Edited By ,Updated: 06 Nov, 2016 03:19 PM

jiwan  chintan

दुख का कारण है मूल की भूल। सायंकाल का समय था, मंद अंधकार था, एक सज्जन हाथ में पानी से भरा लोटा लेकर जंगल की ओर जा रहे थे। मार्ग चलते-चलते वह

दुख का कारण है मूल की भूल। सायंकाल का समय था, मंद अंधकार था, एक सज्जन हाथ में पानी से भरा लोटा लेकर जंगल की ओर जा रहे थे। मार्ग चलते-चलते वह अचानक जोर से चीख मारकर रो पड़े, भाग निकले, लोटा कहीं गिरा, आप कहीं गिरे, हाय-हाय मच गया, जीवन की आशा भी जाती रही, दौड़-धूप, झाड़-फूंक भी प्रारंभ हो गई, बेचैनी बढ़ती जा रही है, संबंधीजन भी रो रहे हैं। अच्छा-भला नवयुवक था, परिवार का सहारा था परंतु अब कौन जानें क्या होगा?

 

किसी दूरदर्शी सज्जन ने पूछा, ‘‘भाई इसकी बेचैनी का कारण क्या है?’’

 

उत्तर मिला, ‘‘पैर के नीचे काला सर्प आ गया। सर्प ने काट खाया, विष चढ़ रहा है, बेचारा बेहोश-सा होता जा रहा है।’’

 

दूरदर्शी ने पूछा, ‘‘वह सर्प कहां था?’’

 

उत्तर मिला, ‘‘जहां लोटा गिरा वहीं पड़ा होगा।’’

 

‘‘लोटा कहां पड़ा है?’’

 

‘‘जहां सर्प था।’’

 

‘‘अच्छा चलो देखें।’’ दूरदर्शी सज्जन ने कहा।

 

टार्च हाथ में लेकर दो-चार व्यक्ति मिलकर हाथ में लाठी लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ते जा रहे हैं, एक ने कहा, ‘‘देखो लोटा दूर से चमक रहा है।’’

 

दूसरे ने कहा, ‘‘भाई सर्प भी उसके समीप में ही अभी पड़ा है।’’

 

तीसरे ने साहस किया और बोला, ‘‘चलो समीप चलें सर्प को मारेंगे।’’

 

टार्च का प्रकाश करते हुए ज्यों-ज्यों वे आगे बढ़ते जा रहे हैं त्यों-त्यों वह बेचारा सर्प स्वयं ही अपने आप बिना मारे मरता जा रहा है, दम तोड़ता जा रहा है, यहां तक कि समीप पहुंचते-पहुंचते उसने अपना नामो-निशान भी न रहने दिया क्योंकि वह सर्प तो था नहीं अपितु वह थी दो मीटर की मोटी रस्सी। दर्शकों ने जोर से हंस कर ताली बजाई, ‘‘भाई यह तो सर्प नहीं रस्सी है।’’

 

ओह! आश्चर्य इस अनहोने सर्प ने कितना दुख दिया? जिसमें विष का नाम मात्र भी नहीं परंतु नवयुवक बेहोश तड़प रहा है। इस बेहोश के दुख का मूल कारण क्या था? मूल की भूल। 

 

तात्पर्य यह कि इस बेहोशी, बेचैनी, करुणा-कलाप, विलाप का मुख्य कारण है, रस्सी का अज्ञान जो मूल है, उसका अज्ञान अर्थात उसे यथार्थ रूप से न जानना ही मूल की भूल है। अब आप सोचें जबकि दर्शकों ने देखा कि सर्प नहीं अपितु रस्सी है, हंस कर ताली सुनने पर उस बेहोश तड़पने वाले व्यक्ति का विष क्या रह सकता है? यह जानने पर कि सर्प नहीं रस्सी है, क्या फिर बेहोशी रह सकेगी? कदापि नहीं। वह युवक जो सर्प के भय से व्याकुल था पश्चाताप करता हुआ शर्मिंदा, लज्जित हो उठकर बैठ गया तथा हंसने लगा। बस यही है दुख का कारण-मूल की भूल।

 

इसी प्रकार जब यह जीव संसार में भ्रमणार्थ जन्म, जीवन, मृत्यु की यात्रा करने निकला, तो ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ यह समस्त प्रपंच ब्रह्म रूप ही है अथवा दृश्य प्रपंच के कण-कण में मिश्री में मिठास एवं नमक में खारापन तथा घृत में चिकनाहट की भांति ब्रह्म् ही ओत-प्रोत व्याप रहा है। ऐसा ज्ञान न होकर अज्ञान तत्कार्य देहाभिमान रूपी अंधेरे के कारण सच्चिदानंद आत्मा रूपी रस्सी में मिथ्या देहोऽहम् भाव रूपी सर्प प्रतीत होने लग पड़ा तथा सर्पवत शरीर के सारे धर्म (जन्म, व्याधि, जरा, मृत्यु) अविनाशी, निर्विकार आत्मा में भासने लगे, जिस कारण जीव का कर्म, धर्म रूपी लोटा छूट गया और जन्म, व्याधि, जरा, मृत्यु रूपी सर्प से घबराया हुआ विक्षिप्त हो रहा है। जब कोई दूरदर्शी तत्ववेता महापुरुष अपनी विवेक रूपी टार्च के प्रकाश से इस मिथ्या देहोऽहम् भाव रूपी सर्प का लोप कर देते हैं तो यह जीव भी जन्म, व्याधि, जरा, मृत्यु रूपी सर्प के विषय से मुक्त हो जाता है। यही है दुख का कारण- मूल की भूल।

 

मृत्यु के बाद के भविष्य के लिए सोचो। मनुष्य भविष्य के बारे में सोचता है, सोचना भी चाहिए पर मनुष्य उस भविष्य के बारे में ही सोचता है जिस भविष्य में अनेकों साथ देने वाले हैं उस भविष्य के बारे में नहीं सोचता जिसमें कोई (व्यक्ति) साथ नहीं दे सकता, कुछ साथ नहीं देगा। बचपन के बाद वाला भविष्य जवानी आए या न आए, जवानी के बाद वाला भविष्य बुढ़ापा आए या न आए, किन्तु जीवनांत के बाद वाले भविष्य (मृत्यु) को कौन टाल देगा? जवानी और बुढ़ापे के आने में संदेह हो सकता है, पर मृत्यु के आने में क्या संदेह है? जीवन के अंतर्गत आने वाले भविष्य में तो इष्ट, मित्र, तन, धन, जन-परिजन सब साथ दे सकते हैं क्योंकि जीवन निर्वाह का प्रारब्ध परमिट तो कट चुका है क्योंकि मुर्दे को भी मिलती है लकड़ी, कपड़ा अौर आग।

 

'जीवित जो चिंता करें तिनके बड़े अभाग।।'

 

तात्पर्य यह कि इस जीवन निर्वाह का साधन प्रारब्ध (भाग्य) तो तुम्हारे पास है पर तुम्हें अपने इस भाग्य पर विश्वास नहीं है। इसलिए हाय-हाय करते रहते हो, तिजोरी भरने पर भी असंतोष की खोपड़ी नहीं भरती लेकिन सोचो-जीवन समाप्त होने के बाद वाले भविष्य में कौन ईष्ट, मित्र, रिश्तेदार साथ देंगे? उसके लिए तो अपना शुद्ध अंतकरण ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च’ यही साथ देगा। इसलिए सदैव शुभ चिंतन करो, शुभ चर्चा एवं शुभ कर्म करते हुए जीवन यात्रा करो, यही जीवन समाप्त होने के बाद वाले भविष्य में काम आने वाला धन है।

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