Kabir jayanti 2019: बड़े से बड़े दुख का नाश करती है कबीर की ये अमृतवाणी

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 17 Jun, 2019 10:07 AM

kabir jayanti 2019

भारत भूमि साधु-संतों की धरती है। जिन्होंने आम जनमानस से लेकर राजा-महाराजा तक को सही दिशा दिखाने का काम किया है। संत कबीरदास जी ऐसे ही महान हुए हैं, जिनकी आज जयंती है।

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भारत भूमि साधु-संतों की धरती है। जिन्होंने आम जनमानस से लेकर राजा-महाराजा तक को सही दिशा दिखाने का काम किया है। संत कबीरदास जी ऐसे ही महान हुए हैं, जिनकी आज जयंती है। उनकी वाणी अमृत के समान है, जो बड़े से बड़े दुख का नाश करती है और जीवन को एक नई दिशा देती है। ये है कबीर जी की अमृतवाणी-

PunjabKesari Kabir jayanti 2019

सदा रहै संतोष में, धरम आप दृढ़ धार।
आश एक गुरुदेव की, और न चित विचार॥
भावार्थ :
संतजनों का मन व्याकुल एवं चंचल नहीं होता। वे सदा ही संतोष वृत्ति में रहते हैं और अपने धर्म को दृढ़ता के साथ धारण करते हैं। उन्हें केवल अपने गुरुदेव की ही आशा होती है तथा उनके चित्त में संसार के क्षुद्र विचार नहीं होते।

साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट।
माथा बांधि पताक सों, नेजा घालैं चोट॥
भावार्थ :
साधु, सती स्त्री और शूरवीर ये पर्दे की ओट में रखने से नहीं रह सकते, अर्थात इन्हें छिपाया नहीं जा सकता। इनके पुरुषार्थ कर्म की ध्वजा तो इनके माथे से बंधी हुई रहती है, चाहे कोई इन पर भाले की चोट ही क्यों न करे, परंतु ये अपने मत-संकल्प को नहीं त्यागते।

साधु सती और सिंह को, ज्यों लंछन त्यों शोभ।
सिंह न मारे मेंढ़का, साधु न बांधे लोभ॥
भावार्थ :
साधु, सती स्त्री और सिंह का जितना भी लम्बा उपवास हो जाए, उतनी ही शोभा तथा गौरव की बात होती है परंतु सिंह कभी भी मेंढक का शिकार नहीं करता और साधु लोभ के वशीभूत हो धन का संग्रह नहीं करता अर्थात ये अपने संकल्प के धनी होते हैं।

हरि दरबारी साधु हैं, इन ते सब कुछ होय।
बेगि मिलावें राम को, इन्हें मिले जु कोय॥
भावार्थ :
साधु-संत जो सत पुरुष परमात्मा के दरबारी (सभासद) हैं, इनसे तो सब कुछ हो सकता है, जो कोई इनसे प्रेमपूर्वक जिज्ञासा भाव लेकर मिले तो ये शीघ्र ही उसे परमात्मा से मिला सकते हैं अर्थात साधु सत्य-ज्ञान में स्थिर एवं आत्म साक्षात्कार के अनुभवी होते हैं। यदि इनसे कोई सेवा-भाव कर याचना करे तो ये उसे भी आत्म दर्शन की युक्ति बता देते हैं।

जौन चाल संसार की, तौन साधु की नाहि।
डभ चाल करनी करै, साधु कहो मत ताहि॥
भावार्थ :
जो चाल संसार की है अर्थात जैसा आचरण व्यवहार संसार के सामान्य लोगों का है वैसा साधु का नहीं होता, जो आचरण अथवा कथनी-करनी में दंभी (कपटी) हैं अर्थात बाहर से कुछ और भीतर से कुछ और हैं, उन्हें साधु मत कहो।

शीलवंत दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय॥
भावार्थ :
संत जन शील (विनम्र) स्वभाव वाले तथा सत्य-ज्ञान में सुदृढ़ सिद्धांत वाले होते हैं। उनका चित्त बहुत ही उदार अर्थात करुणापूर्ण होता है। वे दुष्कर्मों से दूर यानी लज्जा करने वाले, छल-कपट रहित और कोमल हृदय वाले होते हैं।

सरवर तरवर संत जन, और चौथा बरसे मेह।
परमारथ के कारने, चारों धारी देह॥
भावार्थ :
सरोवर (तालाब), वृक्ष, साधु संत और चौथा बरसता हुआ मेह-ये चारों परोपकार के लिए उत्पन्न होते हैं। जैसे सरोवर के जल से दूसरों की प्यास बुझती है, वृक्ष से छाया, फल-फूल, लकड़ी की प्राप्ति होती है, वैसे ही संतों के ज्ञानोपदेश से जीवन कल्याण होता है और मेह बरसने से खेती-बाड़ी हरियाली तथा अन्न आदि की प्राप्ति होती है।

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इंद्रिय मन निग्रह करन, हिरदै कोमल होय।
सदा शुद्ध आचार में, रह विचार में सोय॥
भावार्थ :
साधुजन इंद्रियों और मन का निग्रह करने वाले होते हैं अर्थात इंद्रियों एवं मन को विषयों से दूर रखते हुए संयम व पवित्र भाव में स्थिर रहने वाले होते हैं। उनका हृदय बहुत कोमल और आचरण सदा ही शुद्ध होता है। इसी प्रकार उनके विचार भी पवित्र होते हैं, अर्थात वे पूर्णत: मन, वाणी और कर्म से पवित्र होते हैं।

साधु तो हीरा भया, न फूटै घन खाय।
न वह बिनसै कुंभ ज्यो, ना वह आवै जाय।।
भावार्थ :
साधु-संत तो हीरे के समान होते हैं। जैसे हीरा घन की चोट पडऩे पर भी नहीं टूटता, उसी प्रकार कैसा भी संकट आ जाए, परंतु साधु विचलित नहीं होते। साधु कच्चे घड़े के समान नहीं हैं, जो जरा-सी चोट पर टूट जाएं। एकाग्रचित (दृढ़ता) के कारण ही साधु जन्म-मरण (आवागमन) के चक्र से मुक्त हो जाते हैं।

रक्त छाडि़ पय को गहै, ज्यौरे गऊ का बच्छ।
औगुण छांड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ।।
भावार्थ :
जिस प्रकार गाय का बछड़ा दूध पीते समय, रक्त तो छोड़कर बस दूध को ही ग्रहण करता है, वैसा ही लक्षण (स्वभाव) साधुजनों का होता है। वे दूसरों के अवगुणों को छोड़कर, सद्गुणों को ही धारण करते हैं।

आसन तो एकांत करैं, कामिनी संगत दूर।
शीतल संत शिरोमनी, उनका ऐसा नूर।।
भावार्थ :
संतजन एकांत में आसन लगाते हैं तथा स्त्री की संगत से दूर रहते हैं, अर्थात स्त्री की कामना से मुक्त रहते हैं। संतों के शीतल-मधुर स्वभाव का ऐसा दिव्य प्रकाश होता है कि वे सबके शिरोमणि और वंदनीय होते हैं।

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