Kabir Jayanti 2021: 'कबीर साहिब' का संदेश

Edited By Jyoti,Updated: 21 Jun, 2021 01:59 PM

kabir jayanti 2021

सद्गरू कबीर साहिब का आविर्भाव वि.स. 1456 ईस्वी 1398 को ज्येष्ठ पर्णिमा को सोमवार के दिन हुआ। इसी दिन काशी के जुलाहे नीरू अपनी नवविवाहित नीमा का गौना करा के अपने घर लौट रहे थे।

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सद्गरू कबीर साहिब का आविर्भाव वि.स. 1456 ईस्वी 1398 को ज्येष्ठ पर्णिमा को सोमवार के दिन हुआ। इसी दिन काशी के जुलाहे नीरू अपनी नवविवाहित नीमा का गौना करा के अपने घर लौट रहे थे। लहरतारा सरोवर के निकट से गुजरते समय नीमा को प्यास लगी और वह पानी पीने के लिए तालाब पर गई। नीमा अभी चुल्लू में भर कर पानी पीने ही लगी थी कि उसे किसी बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी और उसने कमल दल के गुच्छ पर एक नवजात शिशु को देखा जो आगे चल कर सद्गुरू कबीर हुए। यह स्थान कबीर जी का प्राकट्य स्थल है जिस के दर्शनों के लिए हर धर्म को लेग देश-विदेश से आते हैं। लहरतारा का यह मंदिर मूलगादी कबीर साहिब की कर्मभूमि है। नीरू और नीमा के निवास स्थान नीरू टीले पर ही कबीर का लालन-पालन हुआ। वहीं पर इलैक्ट्रॉनिक कबीर झोंपड़ी का निर्माण हुआ जिसे 24 फरवरी, 2021 को भक्तों के दर्शनों के लिए खोला गया। कबीर जी के माता-पिता (नीरू-नीमा) कपड़े बुनने का कार्य करते थे जिसमें कबीर जी भी उनका हाथ बंटाने के साथ-साथ प्रभु भक्ति में लीन रहते थे। लोग उनका सत्संग सुनने को उतावले रहते थे।

बेगर-बेगर नाम धराए एक माटी के भांडे।
इन्होंने जातिवाद पर प्रहार करते हुए कहा कि मानव उस एक भगवान की संतान है परंतु कोई अपने आपको ऊंची और कोई नीची जाति का कहता है। व्यक्ति तो एक माटी का बना पुतला है।

कबीर मेरी जाति को सभु को हसनेहार।
बलिहारी इस जाति कऊ जिही जपओ सिरजन हार॥

कबीर साहिब को लोग छोटी जाति का कह कर उनका उपहास उड़ाते थे लेकिन कबीर जी ने इसे बहुत ऊंचा समझा, जिसने भगवान का नाम जपाया और जन्म लेकर भक्ति में लीन हुए।

सब धरती कागद करूं, लेखनि सब बनराय।
सत समुद्र की मसि करूं, हरि गुन लिखा न जाए॥

सारी धरती को कागद बना दूं और सारे वन वृक्षों को लेखनी बना दूं और सातों समुद्रों को स्याही बना कर भी मैं हरि के गुणों को लिखना शुरू करूं तो भी हरि के गुणों को लिखा नहीं जा सकता।

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
कह कबीर पिउ पाइए, मन हीं की परतीत।।

मनुष्य की मन हारने से हार होती है और मन के जीतने पर जीत होती है। कबीर साहब कहते हैं कि मन में विश्वास पैदा करना जरूरी है तभी परमात्मा रूपी प्रिय मिलता है।

कबीर बादल प्रेम का, हम परि बरस्या आई।
अंतरि भीगी आत्मा, हरी भई वर्षराई॥

कबीर साहब उपदेश देते हैं कि ईश्वरीय कृपा का बादल हम पर बरसा और अपार कृपा हुई। उस कृपा की वर्षा से अंतरात्मा तृप्त होगई।

साखी आंखी ज्ञान की, समुझ देख मन माहिं।
बिन साखी संसार का, झगड़ा छुटत नाहिं॥

कबीर साहब ने ज्ञान मार्ग द्वारा सच को पहचानने का रास्ता दिखाया। अज्ञानता ही मतभेद व झगड़े का मूल कारण है। अज्ञानता मिट जाए तो दुनिया में झगड़ा खत्म हो जाएगा। कबीर साहिब की वाणी बताती है कि ज्ञान की पूर्णता से ही जीव को मुक्ति मिल सकती है। इनकी उपदेशात्मक साखियों को अपने जीवन में उतार लें तो हमारा जीवन सदा के लिए सुखी बन सकता है। सद्गुरू कबीर वस्तुत: संत साधक थे। उनकी साधना का मूल मानव मात्र का आध्यात्मिक कल्याण है। भक्ति, प्रेम, ज्ञान और सदाचरण द्वारा वह ईश्वर को प्राप्त करने का संदेश देते हैं।

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े काके लागौ पांय।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दिया बताय॥

कबीर साहिब कहते हैं कि गुरु और ईश्वर दोनों मेरे सामने खड़े हैं मैं किसके चरण स्पर्श करूं? मैं सर्वप्रथम गुरु के चरणों पर बलिहारी जाता हूं जिन्होंने मुझे ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताया।

कबीर सोई पीर है जो जानै पर पीर।
जो पर पीर न जानई सो काफिर के पीर॥

कबीर साहिब कहते हैं वही पीर (संत) है जो दूसरे व्यक्ति की पीड़ा को जानता है। जो दूसरों की पीड़ा को नहीं जानता वह निर्दयी कहलाता है।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं।
सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहिं॥

जीव कहता है कि जब मेरे भीतर ‘अहं’ का भाव था तब तक ईश्वर प्राप्ति मुझे नहीं हुई। अब ईश्वर से साक्षात्कार हो गया है और मेरे भीतर का ‘अहं’ समाप्त हो गया। अब आत्मस्वरूप को देख लेने से सारा अज्ञान का अंधकार मिट गया।

हिन्दू कहूं तो मैं नहीं मुसलान भी नाहि।
पांच तत्व का पुतला गैवी खेलैं माहि।।

मैं न हिन्दू हूं न मुसलमान। मैं तो ईश्वर द्वारा बनाया गया पांच तत्व का पुतला हूं। वही अदृश्य पुरुष सब में खेल रहा है।

सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदै सांच है ताकि हृदय आप।।

उन्होंने सत्य के मार्ग पर चलने को प्रेरित किया। सत्य के समान संसार में कोई तप नहीं और झूठ के बराबर पाप नहीं है। जिसके हृदय में सत्य का निवास है उसके हृदय में ईश्वर स्वयं वास करते हैं।

प्रेमी ढूंढत मैं फिरौ प्रेम मिलै न कोई।
प्रेमी को प्रेमी मिलै तब सब विष अमृत होई॥

कबीर साहब कहते हैं मैं ईश्वर प्रेमी को ढूंढता फिर रहा हूं परंतु मुझे सच्चा ईश्वर प्रेमी नहीं मिला। जब एक ईश्वर प्रेमी दूसरे ईश्वर प्रेमी को मिल जाता है तो विषय वासनाओं रूपी संपूर्ण सांसारिक विष अमृत में बदल जाता है। 

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