कबीर जी का लोई को दिया गया ज्ञान कर सकता है किसी का भी बेड़ा पार

Edited By ,Updated: 04 Nov, 2016 03:00 PM

kabir ji

गंगा नदी के किनारे एक साधु की कुटिया थी। साधु का नाम वनखंडी वैरागी था। उनके पास एक कामधेनु गाय थी। उसी गाय के दूध से वैरागी संत-सेवा किया करते थे। वैरागी एक दिन गंगा नदी में स्नान कर रहे थे। एक काष्ठ के

गंगा नदी के किनारे एक साधु की कुटिया थी। साधु का नाम वनखंडी वैरागी था। उनके पास एक कामधेनु गाय थी। उसी गाय के दूध से वैरागी संत-सेवा किया करते थे। वैरागी एक दिन गंगा नदी में स्नान कर रहे थे। एक काष्ठ के खुले बक्से में लोई में लपेटी हुई एक छोटी-सी बच्ची थी। वह बक्सा पानी में बहता हुआ वैरागी के निकट आया। वैरागी बक्सा लेकर ऊपर आए। लोई (कम्बल) को खोल कर बच्ची को देखा। दयालु वैरागी बच्ची को कुटिया पर ले आए और उसका पालन-पोषण करने लगे। लड़की लोई में लपेटी हुई मिली थी अत: उसका नाम वैरागी ने लोई ही रखा। लोई बड़ी हुई। वह भी संतों की सेवा करने लगी। वैरागी लोई को सत्यज्ञान की शिक्षा दिया करते थे। लोई पर वैरागी के विराग ज्ञान का पूर्ण प्रभाव था। वह वैरागी की सेवा श्रद्धाभाव से करती थी। वैरागी के देहांत के बाद वह अकेली ही कुटिया पर रहती थी। आगत संतों की सेवा उसका मुख्य कार्य था। वह निर्मल भाव से साधु सेवा में लीन रहती।


एक दिन लोई की कुटिया पर कुछ साधु-संत आए। लोई साधु सेवा में लगी थी। उसी समय गंगा पार से कबीर साहब आ रहे थे। कबीर साहब खड़ाऊं पहने हुए गंगाजल के ऊपर होकर चले आए। कुटिया पर बैठे संतों के साथ लोई ने भी साहब को गंगाजल पर आते देखा। यह दृश्य देख संतों को आश्चर्य हुआ। कबीर साहब कुटिया पर आए तो लोई ने उन्हें आसन पर बिठाया। साहब के साथ सभी संतों के लिए दूध लाई और दूध पीने हेतु आग्रह किया। साहब ने सभी संतों को दूध पीने का आदेश दिया तथा बोले, ‘‘मैं शब्दाहारी हूं। मुझे अन्न, जल या किसी प्रकार के आहार की आवश्यकता नहीं है।’’


लोई कबीर साहब की अलौकिक कांति, शब्दाहारी तथा जल के ऊपर-ऊपर खड़ाऊं पहने हुए चले आने के करामात देख आश्चर्यचकित थी। वह समझ गई, साहब विशिष्ट पुरुष हैं। उसने साहब से परिचय, निवास और परिवार के बारे में जानने की इच्छा व्यक्त की। साहब बोले-

मो सम कौन बड़ा परिवारी।।
सत्य है पिता धर्म है भ्राता, लज्जा है महतारी।
शील बहन संतोष पुत्र है, क्षमा हमारी नारी।।
मन दीवान सुरति है राजा, बुद्धिमंत्री भारी।
काम क्रोध दुई चोर बसतु हैं, इनके डर है भारी।।
ज्ञानी गुरु विवेकी चेला, सतगुरु है उपकारी।
सत्य धर्म के बसे नगरिया, कहहि कबीर पुकारी।।
    (कबीर भजनमाला)


अर्थात्- मेरा परिवार बहुत बड़ा है। मेरे परिवार के समान किसी का परिवार नहीं है। मेरे परिवार में पिता सत्य है। माता लज्जा है। भाई धर्म है। बहन शील है। नारी क्षमा है। पुत्र संतोष है। मेरे परिवार का दीवान मन है। राजा सुरति है। मंत्री बुद्धि है। मेरे परिवार में दो चोरों का डर बना रहता है। वे हैं काम और क्रोध। गुरु ज्ञान है। शिष्य विवेक है। मेरा निवास सत्यलोक में है। वहां सभी धर्म परायण हैं।


सद्गुरु कबीर साहब की वाणी से लोई प्रभावित हुई। उसने साहब से अपनी शरण में लगा लेने की प्रार्थना की। सद्गुरु की दया हुई। लोई ने उन्हें अपना गुरु बना लिया। कुछ समय बाद सद्गुरु वहां से अपनी कुटिया पर चलने को तैयार हुए। लोई ने भी उनके साथ चलने की इच्छा प्रकट की। सद्गुरु की आज्ञा मिल गई। 


उसने कुटिया का भार दूसरे संत को सौंप दिया और सद्गुरु के साथ काशी आई। वह नीरू-नीमा के साथ रहने लगी। लोई साधु-संतों की सेवा करने लगी और भक्ति भजन में अपना समय बिताने लगी। सद्गुरु कबीर साहब लोई को समझाने लगे-
प्रीति बहुत संसार में, नाना विधि की सोच।
उत्तम प्रीति सो जानिए, सद्गुरु से जो होय।।


अर्थात् : प्रेम-भाव एक-दूसरे को निकट लाकर सद्भावना पैदा करता है। मित्रभाव, सहयोग, समानता तथा निर्भयता इसके गुण हैं। प्रेम बहुत प्रकार के होते हैं। भौतिक प्रेम शारीरिक सुख के लिए और आत्मिक प्रेम आध्यात्मिक तथा परमात्म सुख के लिए होता है। आत्मिक प्रेम आत्मा का वह दर्पण है जिसमें प्रेमी आत्म-साक्षात्कार करता है। वह प्रेम भक्ति के सहारे अपने प्रियतम सत्यपुरुष-परमात्मा को निकट लाकर प्राप्त कर लेता है। सेवक और स्वामी का पवित्र प्रेम-भाव उत्तम प्रेम है। 

Related Story

India

397/4

50.0

New Zealand

327/10

48.5

India win by 70 runs

RR 7.94
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!