जन्म से ही शापित होते हैं ऐसे लोग, सुख-चैन की सांस लेना भी होता है मुश्किल

Edited By Punjab Kesari,Updated: 04 Nov, 2017 01:55 PM

kalsarpa yoga in birth horoscope

शापित जन्म कुंडलियों से कालसर्प योग की पहचान इन शापों के कारण व्यक्ति की उन्नति नहीं होती, पुरुषार्थ का फल उसे प्राप्त नहीं होता। उसकी संतान जीवित नहीं रहती, इत्यादि। इन सब बुरे प्रभावों का कारण शापित कुंडलियां हैं। शापित कुंडलियों में त्रिशूल...

शापित जन्म कुंडलियों से कालसर्प योग की पहचान

इन शापों के कारण व्यक्ति की उन्नति नहीं होती, पुरुषार्थ का फल उसे प्राप्त नहीं होता। उसकी संतान जीवित नहीं रहती, इत्यादि। इन सब बुरे प्रभावों का कारण शापित कुंडलियां हैं। शापित कुंडलियों में त्रिशूल योग के आधार पर कालसर्प योग की तरफ ज्योतिष विद्वानों का ध्यान खींचा गया है। शापित कुंडलियों और कालसर्प योग की कुंडलियों में काफी हद तक समानता पाई जाती है।


जन्मांग में किसी भी स्थान में राहु-मंगल, राहु-बुध, राहु-गुरु, राहु-शुक्र, राहु-शनि, राहु-रवि इनमें से एक भी युती हो तो उस कुंडली को शापित कुंडली कहना चाहिए। इसी तरह चंद्र-केतु, रवि-केतु, रवि-राहु, इन ग्रहों की युतियां या प्रतियोग, रवि-केतु युती या प्रतियोग, चंद्र, राहु युति, चंद्र-शनि-राहु, चंद्र-मंगल राहु ऐसी युतियां भी शापित कुंडलियों में देखने में आती हैं।


सभी ग्रह राहु-केतु के बीच अटके हुए हों तो ‘पूर्ण कालसर्प योग’ बनता है और यदि कोई एक ग्रह राहु-केतु की पकड़ के बाहर हो तो ऐसी स्थिति को ‘कालसर्प योग छाया’ कहना चाहिए।


‘कालसर्प योग’ वृषभ, मिथुन, कन्या एवं तुला लग्र के व्यक्तियों को विशेष रूप से प्रभावित करता है।


कुंडली में राहु अष्टम स्थान में और केतु द्वितीय स्थान में हो और ऐसी अवस्था में यदि ‘कालसर्प योग’ बने तो यह ‘योग’ कष्टकारक होता है। ऐसे व्यक्तियों को सपने में सांप दिखाई देते हैं और व्यक्ति नींद में घबराकर भयभीत हो उठ बैठता है।


ग्रहों के गोचर भ्रमण का फलित ज्योतिष में बड़ा महत्व है। कुंडली में जब गोचर भ्रमण से राहु छठे, आठवें या बारहवें स्थान में भ्रमण करता है तब या राहु-केतु की दशा-अंतर्दशा में कालसर्प योग के फल तीव्रता के साथ अनुभव में आते हैं।


ब्रह्मांड में जिन्हें हम अपनी आंखों से देख सकते हैं, उन्हें ‘ताराग्रह’ कहा जाता है और जिन्हें हम अपनी आंखों से नहीं देख सकते उन्हें ‘छायाग्रह’ कहा जाता है।


रवि एवं चंद्र के भ्रमण वृत्त के आसपास दो संपात बिन्दु होते हैं। इन दोनों बिंदुओं को ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों का स्थान दिया गया है। ‘उर्ध्व बिंदु’ को ‘राहु’ और ‘अर्धबिंदु’ को ‘केतु’ की संज्ञा दी गई है।


सूर्य एवं पूनम के पूर्ण चांद का ग्रहण लगता है। उनके फल अशुभ माने जाते हैं और वे खरे भी उतरते हैं। जन्मांग में सूर्य एवं चांद के साथ राहु या केतु एक ही स्थान में होने पर ग्रहण जैसी ही स्थिति बनती है। ऐसी कुंडली धारण करने वाले व्यक्ति को इस ग्रहण के अशुभ फल भोगने पड़ते हैं। राहु-केतु के साथ रहने वाले चंद्र या रवि के अंश से 7 अंश में अधिक हो तो अशुभ फलों की तीव्रता कम होती है।


राहु-केतु की तुलना सर्प से की जाती है। राहु सर्प का मुख एवं केतु पूंछ मानी जाती है। कुंडली के एक ही हिस्से में राहु-केतु के बीच सभी ग्रह हों तो ‘कालसर्प योग’ बनता है। जिस व्यक्ति के जन्मांग में कालसर्प योग हो उस व्यक्ति को अपने जीवनकाल में अनेक उतार-चढ़ाव देखने पड़ते हैं। भौतिक सुखों से वह वंचित रहता ही है, सुख-चैन की सांस लेना भी उसके लिए दूभर हो जाता है।

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