भक्त एवं भगवान का मिलन है भगवान जगन्नाथ रथयात्रा

Edited By Punjab Kesari,Updated: 15 Dec, 2017 07:51 AM

lord jagannath rath yatra is the meeting of the devotee and god

भारतीय जनमानस की भक्ति के प्राणाधार श्री कृष्ण का सबसे दयालु स्वरूप भगवान जगन्नाथ है। भगवान जगन्नाथ अर्थात भक्त के नाथ, जगत के नाथ दयालु भगवान। इस स्वरूप में विशाल नेत्रों के साथ बांहें पसारे भगवान जगन्नाथ भक्त को अपने आलिंगन में लेने के लिए उसे...

भारतीय जनमानस की भक्ति के प्राणाधार श्री कृष्ण का सबसे दयालु स्वरूप भगवान जगन्नाथ है। भगवान जगन्नाथ अर्थात भक्त के नाथ, जगत के नाथ दयालु भगवान। इस स्वरूप में विशाल नेत्रों के साथ बांहें पसारे भगवान जगन्नाथ भक्त को अपने आलिंगन में लेने के लिए उसे पुकार रहे हैं। भगवान जगन्नाथ रथयात्राओं के आयोजन का वास्तविक अर्थ भक्त एवं भगवान का मिलन है। जिसे देश-विदेशों में अंतर्राष्ट्रीय श्री कृष्ण भावनामृत संघ (इस्कॉन) तहेदिल से निभा रहा है। 


जगन्नाथ रथयात्रा शुरू होने की पौराणिक कथा के अनुसार लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व द्वापर युग में लीला पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण जब वृंदावन त्याग कर द्वारिका नगरी में अपनी पत्नियों संग निवास कर रहे थे, तभी एक बार पूर्ण सूर्य ग्रहण का विरल अवसर आया। सूर्य ग्रहण के इस अवसर पर सभी यदुवंशियों ने कुरुक्षेत्र में स्थित समन्त पंचक नामक पवित्र तीर्थ पर एकत्रित होने तथा यथा रीति वहां स्नान, उपवास, दान आदि करके अपने पापों का प्रायश्चित करने का निश्चय किया। निश्चय के अनुरूप समस्त द्वारिका वासियों ने श्री कृष्ण के नेतृत्व में कुरुक्षेत्र की ओर प्रस्थान किया।


वियोगिनी राधा रानी एवं वृंदावन वासियों को जब ज्ञात हुआ कि श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र आ रहे हैं तो उन्होंने नंद बाबा के नेतृत्व में श्री कृष्ण के दर्शनार्थ कुरुक्षेत्र जाने का निश्चय किया। इतने वर्षों के पश्चात भक्त शिरोमणि राधा रानी तथा गोपियों ने श्री कृष्ण को देखकर परम आनंद अनुभव किया किंतु कुरुक्षेत्र का वातावरण तथा श्री कृष्ण की राजसी वेशभूषा राधा रानी के प्रेम में अवरोधक थी। राधा रानी पूर्व बीते समय की भांति श्री कृष्ण के साथ वृंदावन की कुंज गलियों में विहार तथा मिलन के लिए लालायित थीं।

 

इस लालसा के कारणवश राधा रानी ने श्री कृष्ण को वृंदावन आने का निमंत्रण दिया। परम भगवान श्री कृष्ण ने निमंत्रण स्वीकार किया तो वृंदावन वासी प्रसन्नता से झूम उठे। जिस रथ पर परम भगवान श्री कृष्ण तथा उनके बड़े भाई बलराम तथा मध्य में बहन सुभद्रा आरूढ़ थीं, उस रथ के घोड़े ब्रजवासियों ने खोल दिए तथा घोड़ों की जगह स्वयं जुत गए।


वृंदावन वासियों ने परम भगवान श्री कृष्ण को तब प्रथम बार भगवान जगन्नाथ (जगत के नाथ) का नाम दिया। आकाश जय जगन्नाथ, जय बलदेव, जय सुभद्रा के उद्घोषों से गूंज उठा। भक्तों का अभूतपूर्व प्रेम देखकर परम भगवान श्री कृष्ण ने कहा-जब तुम मेरे घोड़े (दास) बन ही गए हो तो अब तुम मुझे जहां चाहे ले चलो। इस प्रकार सब ब्रजवासी मिलकर भगवान श्री कृष्ण के रथ को स्वयं खींचकर श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा जी का जय-जयकार करते हुए वृंदावन धाम तक ले गए। इसी सारी लीला को जगन्नाथ रथयात्रा के नाम से जाना  जाने लगा। 


लेकिन श्री कृष्ण के प्रेम एवं भक्ति की यह लीला उसी दिन समाप्त नहीं हो गई बल्कि श्री जगन्नाथ रथयात्रा उसी कृष्ण प्रेम के साथ जगन्नाथ पुरी उड़ीसा में निकलनी शुरू हुई, जहां लाखों भक्तों ने रथयात्राओं में भाग लेना शुरू किया। श्री कृष्ण भक्तों को रथयात्राओं के साथ जोड़े रखने के लिए 20वीं शताबदी में महान संत एवं इस्कॉन के संस्थापक आचार्य श्रील प्रभुपाद ने भरसक प्रयास शुरू किए। 


इसी कड़ी में उन्होंने 9 जुलाई 1967 को अमेरिका में सान फ्रांसिस्को की धरती पर जगन्नाथ रथयात्रा का आयोजन कर प्रथम बार भगवान श्री कृष्ण का नाम विदेशी धरती पर फैलाना शुरू किया। तब से लेकर आज तक सान फ्रांसिस्को में इस दिन को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाता है। 


उधर लुधियाना में 1996 में श्रील प्रभुपाद की जन्म शताब्दी के अवसर पर इस्कॉन कुरुक्षेत्र अध्यक्ष श्रद्धेय साक्षी गोपाल दास के अथक प्रयासों से लुधियाना में प्रथम बार जगन्नाथ रथयात्रा का आयोजन किया गया। पिछले लगभग दो दशकों से भी अधिक समय से लुधियाना में जगन्नाथ रथयात्रा का वार्षिक आयोजन अपने पूरे वेग से कृष्ण भक्ति की पराकाष्ठा को बढ़ा रहा है। 


इस रथयात्रा में सम्मिलित होने के लिए हर वर्ष देश-विदेशों से अनेकों कृष्ण भक्त जगन्नाथ जी की कृपा लेने के लिए लुधियाना पधारते हैं। रथयात्रा के पावन अवसर पर हीरे-रत्न एवं स्वर्ण जडि़त झाड़ुओं से रथयात्रा मार्ग को स्वच्छ किया जाता है। रंग-बिरंगी रंगोलियों से सजाकर उसमें कृष्ण भक्ति के रंग संजोए जाते हैं। मार्ग में फूलों के द्वार, तोरणद्वार, वंदनवार, दीपमाला, शहनाई वादन, फलों के द्वार आदि द्वारों से रथयात्रा मार्ग को सजाया जाता है।


रथ के आगे अनेकों वैष्णव संकीर्तन मंडलियां भगवान जगन्नाथ जी के संकीर्तन में लीन रहती हैं। पूरा रथयात्रा मार्ग 108 तीर्थों के जल एवं गौमाता के गोबर से शुद्ध किया जाता है, ताकि भगवान जगन्नाथ ने जिस मार्ग से निकलना है, उस मार्ग पर भक्त एवं भगवान का मधुर मिलन हो। जगन्नाथ रथ के समक्ष भक्तों द्वारा मोरपंख आरती, चंवर आरती, इत्र, दीपक, गुगल, नारियल, कपूर, अगरबत्ती आदि आरतियां करके जगन्नाथ जी को रिझाया जाता है। अनेकों स्वागती मंच भगवान जगन्नाथ जी की प्रतीक्षा में पलकें बिछाए बैठते हैं। भगवान को प्रिय छप्पन भोग, विभिन्न व्यंजन, माखन-मिश्री भोग, भगवान के आगे अर्पित किए जाते हैं। विभिन्न प्रदेशों की सांस्कृतिक झांकियां एवं प्रादेशिक बैंड राष्ट्रीय एकता की झलक दिखाते हैं। 

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