महाभारत: ये है पाप से बचने का एकमात्र उपाय

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 02 Jul, 2020 12:39 PM

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किसी छूटे हुए नेक काम को करने का अवसर दोबारा नहीं मिलता और हम सबने अपने जीवन में अवश्य ही कई बार ऐसी चूक का अनुभव किया होगा। पुराणों में कहा गया है- परोपकार:  पुण्याय पापाय परपीडऩम् अर्थात

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Mahabharata: किसी छूटे हुए नेक काम को करने का अवसर दोबारा नहीं मिलता और हम सबने अपने जीवन में अवश्य ही कई बार ऐसी चूक का अनुभव किया होगा। पुराणों में कहा गया है- परोपकार:  पुण्याय पापाय परपीडऩम् अर्थात परहित सबसे बड़ा पुण्य है और दूसरों को कष्ट पहुंचाना पाप है, अत: ऐसे किसी भी पापकर्म से बचने का एक ही उपाय है कि अशुभ कार्य को करने में शीघ्रता न की जाए। इस संदर्भ में ‘महाभारत’ में ही एक प्रसंग आता है जिसमें महर्षि गौतम के पुत्र चिरकारी अशुभ कार्य को करने से पूर्व देर तक सोचते रहने के कारण एक महान पाप से बच गए थे। वह कथा इस प्रकार है- महर्षि गौतम का पुत्र था चिरकारी। वह किसी कार्य को करने से पूर्व उस पर देर तक विचार किया करता था। इसलिए उसका नाम चिरकारी पड़ गया। एक दिन की बात है।महर्षि गौतम की पत्नी द्वारा एक अपराध हो गया तो महर्षि ने कुपित होकर पुत्र को आदेश दिया कि तुम अपनी माता का वध कर दो। यह कहकर महर्षि वन में चले गए।

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आज्ञाकारी पुत्र चिरकारी ने हां कह कर आज्ञा स्वीकार कर ली। फिर अपने स्वभाव के अनुसार उसने सोचा कि पिता की आज्ञा का पालन करना पुत्र का धर्म है परन्तु माता की रक्षा करना परमधर्म है। वह इस विषय पर कई दिन तक विचार करता रहा। माता का वध नहीं कर पाया।

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दूसरी ओर महर्षि का क्रोध जब शांत हुआ तो वह अपने अनुचित निर्णय पर शोक संतप्त हो गए। उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ और तुरंत घर की ओर चल पड़े। इस विषय पर गंभीर चिंतन करते हुए घर लौटते समय महर्षि गौतम को अपने पुत्र के स्वभाव का ध्यान आया। वह सोचने लगे कि आज यदि मेरे पुत्र ने अपने स्वभाव के अनुसार विलम्ब किया होगा तो मैं पत्नी की हत्या के पाप से बच जाऊंगा। ऐसा सोचकर महर्षि ने पुत्र से कहा, ‘‘बेटा! आज विलम्ब करके तू वास्तव में चिरकारी बन और अपनी माता की रक्षा करके अपने को भी पातकी होने से बचा ले।’’

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घर लौटने पर गौतम ने अपनी धर्मपत्नी को अपने पास आते देखा तो उनकी प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। उन्होंने पुत्र को हृदय से लगाते हुए कहा, ‘‘बेटा! आज तेरे चिरकारी स्वभाव ने हम सभी को बचा लिया है। मैंने बिना विचार किए जो आज्ञा तुम्हें दे दी थी, कदाचित तुम तत्काल ही उसका पालन कर लेते तो बड़ा अनर्थ हो जाता।’’

इस प्रकार यह प्रमाणित होता है कि शुभ कार्य शीघ्र करना जहां श्रेयस्कर है, वहीं अशुभ या पापकर्म को टालना ही कल्याणकारी है, अत: जीवन में ‘शुभस्य शीघ्रम’ और अशुभस्य कालहरणम् की सुंदर नीति का सदैव पालन करना चाहिए।

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