महालक्ष्मी से जुड़ी ये कथा क्या सुनी है आपने ?

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 21 Dec, 2018 12:41 PM

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एक दिन ऐरावत पर भ्रमण करते हुए इंद्र से मार्ग में महर्षि दुर्वासा मिले। उन्होंने इंद्र पर प्रसन्न होकर उन्हें अपने गले की पुष्पमाला प्रसाद रूप में प्रदान की।

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एक दिन ऐरावत पर भ्रमण करते हुए इंद्र से मार्ग में महर्षि दुर्वासा मिले। उन्होंने इंद्र पर प्रसन्न होकर उन्हें अपने गले की पुष्पमाला प्रसाद रूप में प्रदान की। इंद्र ने उस माला को ऐरावत के मस्तक पर डाल दिया और ऐरावत ने अपनी सूंड से उसे नीचे डालकर पैरों से कुचल दिया। अपने प्रसाद का अपमान देखकर महर्षि दुर्वासा ने इंद्र को लक्ष्मी विहीन होने का श्राप दे दिया। महर्षि के श्राप से श्रीहीन इंद्र दैत्य बलि से युद्ध में परास्त हो गए। दैत्य राज बलि का तीनों लोकों पर अधिकार हो गया। हार कर देवता ब्रह्मा जी को साथ लेकर भगवान विष्णु की शरण में गए और इस संकट से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की।
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भगवान विष्णु ने कहा, ‘‘आप लोग दैत्यों से संधि कर लें और उनके सहयोग से मंदराचल को मथानी तथा वासुकि नाग को रस्सी बनाकर क्षीर सागर का मंथन करें। समुद्र से अमृत निकलेगा, जिसे पिलाकर मैं देवताओं को अमर बना दूंगा, तभी देवता दैत्यों को पराजित करके पुन: स्वर्ग प्राप्त कर सकेंगे।’’
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इंद्र दैत्य राज बलि के पास गए और अमृत के लोभ से देवताओं और दैत्यों में संधि हो गई। देवताओं और दैत्यों ने मिलकर मंदराचल को उठाकर समुद्र तट की ओर ले जाने का प्रयास किया, किंतु असमर्थ रहे। फिर दैत्यों और देवताओं ने मिलकर भगवान श्री हरि की स्तुति करी। भगवान विष्णु ने भारी मंदराचल को उठाकर गरुड़ पर रख लिया और कुछ पलों में क्षीर सागर के तट पर पहुंचा दिया। मंदराचल की मथानी और वासुकि नाग की रस्सी बनाकर समुद्र-मंथन प्रारंभ हुआ। भगवान ने मथानी को धंसते हुए देखकर स्वयं कच्छप रूप में मंदराचल को आधार प्रदान किया। मंथन में सबसे पहले विष प्रकट हुआ, जिसकी भयंकर ज्वाला से सभी के प्राण संकट में पड़ गए। लोक कल्याण के लिए भगवान शंकर ने उसका पान किया। फिर समुद्र से लक्ष्मी प्रकट हुई। उन्होंने श्री हरी विष्णु के गले में माला डालकर उन्हें अपने पति के रूप में चुना। धन, सम्पत्ति और समृद्धि का नाम ही लक्ष्मी है। मां लक्ष्मी भगवान विष्णु की पत्नी है। इसके बाद समुद्र मंथन से कौस्तुभ, पारिजात, सुरा, धन्वन्तरि, चंद्रमा, पुष्पक, ऐरावत, पाञ्चजन्य शंख रम्भा, कामधेनु, उच्चै:श्रवा और अमृत कुंभ निकले। अमृत-कुंभ निकलते ही धन्वन्तरि के हाथ से अमृत से भरा कलश छीनकर दैत्य भागे क्योंकि उनमें से हर कोई सबसे पहले अमृतपान करना चाहता था।
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कलश के लिए छीना-झपटी चल रही थी और देवता निराश खड़े थे। अचानक वहां एक मन को मोहने वाली सुंदर नारी प्रकट हुई। असुरों ने उसके सौंदर्य से प्रभावित होकर उससे अमृत बांटने की प्रार्थना की। वास्तव में भगवान विष्णु ने दैत्यों को मोहित करने के लिए मोहिनी रूप धारण किया था। मोहिनी रूप धारी भगवान ने कहा, ‘‘मैं जैसे भी अमृत को सभी को दूं, आप बीच में बाधा नहीं डालोगे, तभी मैं इस काम को करूंगी।’’
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सभी ने इस शर्त को स्वीकार किया। देवता और दैत्य अलग-अलग पंक्तियों में बैठ गए। जिस समय भगवान मोहिनी रूप में देवताओं को अमृत पिला रहे थे राहू धैर्य न रख सका। वह देवताओं का रूप बना करके सूर्य-चंद्रमा के बीच में बैठ गया। जैसे ही उसे अमृत का घूंट मिला, सूर्य-चंद्रमा ने संकेत कर दिया। भगवान मोहिनी रूप का त्याग करके शंख-चक्रधारी विष्णु हो गए और उन्होंने चक्र से राहू का मस्तक काट डाला। असुरों ने भी अपना शस्त्र उठाया और देवासुर-संग्राम प्रारंभ हो गया। अमृत के प्रभाव से तथा भगवान की कृपा से देवताओं की विजय हुई और उन्हें अपना स्वर्ग पुन: वापस मिला।
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