करना चाहता हैं अपने आप से पहचान तो जाएं इनकी शरण में

Edited By Jyoti,Updated: 16 Apr, 2019 11:33 AM

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जब से यह दुनिया बनी, तब से इंसान इस सवाल को हल करने में लगा हुआ है कि मैं कौन हूं? इस दुनिया से मेरा क्या संबंध है? और इसको बनाने वाला कौन है? इसके जवाब के लिए उसने हर तरह की खोज की, मगर ये सवाल हल न हुए।

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जब से यह दुनिया बनी, तब से इंसान इस सवाल को हल करने में लगा हुआ है कि मैं कौन हूं? इस दुनिया से मेरा क्या संबंध है? और इसको बनाने वाला कौन है? इसके जवाब के लिए उसने हर तरह की खोज की, मगर ये सवाल हल न हुए। अनेक संत-महात्मा इस संसार में आए और उन्होंने इंसान को आत्म-ज्ञान से रू-ब-रू कराया।
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आत्म-ज्ञान वह है जो इस सवाल का हल करे कि आत्मा क्या है और उसका परमात्मा से क्या संबंध है? इसका अनुभव हम केवल अपने अंतर में जाकर ही कर सकते हैं। सभी संत-महात्माओं ने इसे पराविद्या कहा है। इसके अलावा और जितने भी बाहरी साधन हैं, जैसे कि जप-तप, पूजा-पाठ, हवन-दान, तीर्थ यात्रा आदि को अपराविद्या कहा गया है। इन सभी का संबंध सिर्फ हमारे शरीर के साथ है, न कि आत्मा के साथ।
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संतों की नजरों में पराविद्या भी बाकायदा एक प्रैक्टीकल साइंस है जिसका आंतरिक अनुभव केवल वर्तमान के जीते-जागते पूर्ण गुरु की शरण में जाकर ही मिल सकता है। चाहे हम हिन्दू हों, मुसलमान हों, सिख हों या ईसाई हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पूर्ण गुरु जात-पात व धर्म में कोई भेद नहीं करते। उनकी नजर में तमाम समाज अलग-अलग स्कूलों और कालेजों की तरह हैं। जैसे स्कूलों और कालेजों की अलग-अलग वॢदयां और बिल्ले होते हैं, मगर उनकी शिक्षा एक-सी होती है, ठीक ऐसे ही समाजों में अपने-अपने चिन्ह-चक्र हैं, पर आदर्श सबका एक ही है। इन सब समाजों से इंसान का दर्जा सबसे ऊंचा है। महापुरुषों ने कहा है कि इंसान-इंसान सब एक है, चाहे हम किसी देश, जाति, धर्म, वर्ग या समाज से संबंध रखते हों। हम सब उस परमात्मा के बच्चे हैं और आपस में भाई-बहन हैं।
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धर्म ग्रंथों को खाली पढऩा और कथा-कीर्तन कर लेना ही काफी नहीं है। हमें भी वहां तक पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए जहां तक वे महापुरुष पहुंचे, जिन्होंने अपने अनुभव धर्म ग्रंथों में लिखे हैं क्योंकि जो एक इंसान कर सकता है, वह दूसरा भी कर सकता है, अगर उसे उचित मदद और मार्गदर्शन प्राप्त हो।

 

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