आत्मतत्व की प्राप्ति ही जीवन का चरमोद्देश्य है

Edited By Jyoti,Updated: 30 Jun, 2020 10:21 AM

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आचार्य उपकौशल यात्रा पर निकले थे, परन्तु आधे मार्ग में पहुंचने पर ही रात हो गई और उन्हें वन में एक वृक्ष के नीचे ही रुकना पड़ा।

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आचार्य उपकौशल यात्रा पर निकले थे, परन्तु आधे मार्ग में पहुंचने पर ही रात हो गई और उन्हें वन में एक वृक्ष के नीचे ही रुकना पड़ा। सोने के कुछ देर पश्चात ही उन्हें किसी के कराहने की आवाज सुनाई पड़ी। उन्होंने लकडिय़ां जलाकर देखा, पर कोई दिखाई नहीं दिया। 
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तब उन्होंने कहा, ‘‘यहां कौन है? सामने क्यों नहीं आते?’’ 

उत्तर मिला, ‘‘हे तपस्वी! आप तो विज्ञ हैं। मैं निकृष्ट प्रेत आपके ब्रह्मतेज के समक्ष कैसे प्रकट हो  सकता हूं? कृपाकर मेरे उद्धार का मार्ग बताइए।’’ 

आचार्य ने उसकी इस दशा का कारण पूछा। उसने बताया, ‘‘भोगों को प्राप्त करने के लिए मैंने कभी भी कर्मों की नैतिकता की परवाह नहीं की और आजीवन ऐसा जीवन बिताने पर भी मेरी वासनाओं की संतुष्टि न हो सकी, फलस्वरूप मृत्यु के उपरांत प्रेत योनि में अत्यंत विक्षुब्धता के साथ भटक रहा हूं।’’
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‘‘यह मन ही अनियंत्रित होने पर पतन का कारण बनता है और यदि साध लिया जाए तो यही मुक्ति का हेतु भी सिद्ध होता है। आत्मतत्व की प्राप्ति ही जीवन का चरमोद्देश्य है, इसे समझकर देह व मन को साधते हुए अभीष्ट मार्ग पर चलने से ही मनुष्य का सभी प्रकार से कल्याण होता है।’’ 

ऐसा कहते हुए आचार्य ने अपने तप-पुण्य का एक अंश देकर उसके कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया, जिसके फलस्वरूप उस प्रेत का पुनर्जन्म हुआ और स्मृति रहने के कारण बाल्याकाल से ही वह आत्मसाधना और लोक सेवा करते हुए मुक्तिपथ पर प्रशस्त हो गया।
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