प्रार्थना तभी संपन्न होती है जब उसमें परहित का भाव हो

Edited By Punjab Kesari,Updated: 06 Mar, 2018 10:13 AM

motivational concept

एक अमीर व्यक्ति से बातचीत के दौरान देहात में रहते उनके वृद्ध माता-पिता का उल्लेख आया तो वे शुरू हो गए, ‘‘उन्हें कितना समझाया, हमारे मकान में ढेर सारी जगह है, पर वे रहने को नहीं आते।

एक अमीर व्यक्ति से बातचीत के दौरान देहात में रहते उनके वृद्ध माता-पिता का उल्लेख आया तो वे शुरू हो गए, ‘‘उन्हें कितना समझाया, हमारे मकान में ढेर सारी जगह है, पर वे रहने को नहीं आते। हमें बच्चों की देखभाल के लिए और वैसे भी घर में रहने वालों की सख्त जरूरत है लेकिन वे अड़े रहते हैं कि रहेंगे तो अपने ही ठौर में।’’ वास्तव में यदि उनका भव्य मकान न होता, उन्हें अपनी गरज से उनकी जरूरत न होती, तब अगर उनसे साथ रहने का आग्रह-अनुग्रह करते तो वे उनकी मंशा अवश्य भांप लेते और सहर्ष चले आते।


माता-पिता से अलग रहते, पद-प्रतिष्ठा और संपन्नता हासिल करने के बाद बच्चों की परवरिश के दौरान उनके लिए सहसा उमड़ता प्रेम, प्रेम नहीं शुद्ध स्वार्थ है। मां-बाप का आने-जाने का भाड़ा, खाना-पीना आदि सब जोड़ लें तो भी वे नौकरों से सस्ते पड़ते हैं, नन्हों की भरोसेमंद देखभाल और सामाजिक प्रतिष्ठा अलग। 


निजी स्वार्थ साधने में दूसरों के हितों की उपेक्षा प्राकृतिक विधान के प्रतिकूल है और इसी दुनिया में पाई-पाई का हिसाब चुकाना पड़ता है। प्रभु ने तमाम संसाधन और उपभोग्य वस्तुएं इसलिए निर्मित की हैं कि उनका उपयोग सभी प्राणी करें। जो सोचते हैं कि दुनिया के सभी साधन मात्र उन्हीं के लिए हैं, उनके पास अंतत: एक ही चीज बची रहेगी, वे स्वयं। अंतकाल में कोई साथ नहीं देता। 


नि:स्वार्थ भाव से अभिप्रेरित व्यक्ति अपने मन, चित को निरंतर प्रफुल्लित रखते हुए विडंबनाओं, उलझनों से जूझते जनजीवन को पग-पग पर राहत पहुंचाता है। नि:स्वार्थी चूंकि प्रभु की लोककल्याण की मंशा के अनुरूप कार्य करता है, प्रभु उसे विकट परिस्थितियों में संबल देते हैं। वह जानता है कि बेशक हर कोई सब कुछ नहीं कर सकता, किंतु हर कोई कुछ तो कर सकता है। निजी स्वार्थों से अभिप्रेरित प्रयासों का फलीभूत होना संदेहास्पद होता है। प्रार्थना भी तभी संपन्न होती है जब उसमें परहित का भाव हो।

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