एक बार स्वामी विवेकानंद ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। वह जिस कोच में बैठे थे, उसी कोच में एक महिला भी अपने बच्चे के साथ यात्रा कर रही थी।
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एक बार स्वामी विवेकानंद ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। वह जिस कोच में बैठे थे, उसी कोच में एक महिला भी अपने बच्चे के साथ यात्रा कर रही थी। एक स्टेशन पर 2 अंग्रेज अफसर उस कोच में चढ़े और महिला के सामने वाली सीट पर आकर बैठ गए। कुछ देर बाद दोनों अंग्रेज अफसर उस महिला पर अभद्र टिप्पणियां करने लगे। वह महिला अंग्रेजी नहीं समझती थी इसलिए चुप रही। उन दिनों भारत अंग्रेजों का गुलाम था। अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति दुव्र्यवहार आम बात थी।
धीरे-धीरे दोनों महिला को परेशान करने पर उतर गए। कभी उसके बच्चे का कान मरोड़ते तो कभी उसके गाल पर चुटकी काट लेते। परेशान होकर उस महिला ने अगला स्टेशन आने पर एक दूसरे कोच में बैठे पुलिस के भारतीय सिपाही से शिकायत की। शिकायत पर वह सिपाही उस कोच में आया भी लेकिन अंग्रेजों को देखकर वह बिना कुछ कहे ही वापस चला गया। ट्रेन के चलने पर दोनों अंग्रेज अफसरों ने अपनी हरकतें फिर से शुरू कर दीं। विवेकानंद काफी देर तक यह सब देख-सुन रहे थे। वह समझ गए थे कि ये अंग्रेज इस तरह नहीं मानेंगे। वह अपने स्थान से उठे और जाकर उन अंग्रेजों के सामने खड़े हो गए।
उनकी सुगठित काया देखकर अंग्रेज सहम गए। पहले तो विवेकानंद ने उन दोनों की आंखों में घूरकर देखा। स्वामी जी के रवैये से दोनों अंग्रेज अफसर डर गए और अगले स्टेशन पर वह दूसरे कोच में जाकर बैठ गए। प्रसंग का सार यह है कि ‘जुल्म को जितना सहेंगे, वह उतना ही मजबूत होगा। अत्याचार के खिलाफ तुरन्त आवाज बुलंद करनी चाहिए।’
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