एक संत की सीख ने बदला राजा का जीवन

Edited By Jyoti,Updated: 14 Apr, 2019 01:48 PM

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सोनपुर का राजा रामकीर्ति सिंह प्रजावत्सल व दानवीर था। कोई भी याचक उसके दरबार से कभी खाली हाथ नहीं लौटता था। हर कोई उसकी दानवीरता की तारीफ करता। यह सुन-सुनकर राजा के मन में धीरे-धीरे अहंकार पनपने लगा।

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सोनपुर का राजा रामकीर्ति सिंह प्रजावत्सल व दानवीर था। कोई भी याचक उसके दरबार से कभी खाली हाथ नहीं लौटता था। हर कोई उसकी दानवीरता की तारीफ करता। यह सुन-सुनकर राजा के मन में धीरे-धीरे अहंकार पनपने लगा। उसे लगता कि उसके समान दान देने वाला दुनिया में दूसरा कोई नहीं है। धीरे-धीरे यह भाव राजा की दान-वृत्ति में भी नज़र आने लगा। जहां पहले वह बड़े ही विनम्र भाव से दूसरों को दान दिया करता था, वहीं अब उसमें थोड़ी घमंड आ गया।
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एक बार राज्य में एक तपस्वी संत का आगमन हुआ। राजा को जब संत के बारे में पता चला तो उसने उन्हें समान से अपने राजदरबार में बुलाया। संत के दरबार में पहुंचने पर राजा ने उनका यथोचित सत्कार किया। थोड़ी देर बाद जब संत वहां से जाने लगे तो राजा ने उनसे कहा, ‘‘महात्मन, मेरे द्वार से कोई खाली हाथ नहीं जाता। आज मेरी इच्छा है कि मैं आपको मुंहमांगा उपहार दूं।’’

संत ने कहा, ‘‘राजन, मुझे किसी वस्तु की कामना नहीं है। आप परेशान न हों।’’

पर राजा उन्हें कुछ देने की जिद्द पर अड़ गया। इस पर संत बोले, ‘‘राजन, यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो अपने मन से सबसे प्रिय वस्तु दे दें। मैं आपसे क्या मांगू!’’ राजा ने दंभपूर्ण स्वर में कहा, ‘‘मैं अपना यह राज्य आपके चरणों में समर्पित करता हूं।’’

यह सुनकर संत ने कहा, ‘‘यह राज्य तो प्रजाजनों का है, आप तो इसके संरक्षक मात्र हैं।’’
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यह सुनकर राजा सोच में पड़ गया, फिर बोला, ‘‘राज्य न सही, यह महल, सवारी तो मेरे हैं। मैं इन्हें आपको समर्पित करता हूं।’’

संत हंस पड़े और बोले, ‘‘राजन, आप भूल जाते हैं। यह भी प्रजाजनों का है। यह सब आपको आपके कार्य की सुविधा के लिए दिया गया है।’’

अब राजा को कुछ सूझ नहीं रहा था। उसने अपना शरीर दान देने का विचार व्यक्त किया। इसके जवाब में संत ने कहा, ‘‘इस पर भी आपकी भार्या और बाल-बच्चों का हक है। इसे कैसे दे पाएंगे?’’

राजा निरुत्तर हो गया। उसे असमंजस में देख संत ने कहा, ‘‘राजन, आप अपने मन का अहंकार दान कर दें। अहंकार ही सबसे बड़ा बंधन है।’’

राजा को अपनी भूल समझ में आ गई और उसने अनासक्त योगी की तरह रहने का प्रण लिया। संत ने राजा को जीवन में निरंतर उन्नति का आशीष देते हुए वहां से विदा ली।
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