Edited By Niyati Bhandari,Updated: 09 Aug, 2022 12:05 PM
हजरत अली (रजि) की शहादत के बाद खिलाफत (हकूमत) के मुद्दे पर फिर तलवारें तन गईं परंतु हजरत हसन ने बुद्धिमता से काम लेते हुए अपना दावा वापस ले लिया। अमीर माविया ने पुत्र यजीद को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था।
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Muharram 2022: हजरत अली (रजि) की शहादत के बाद खिलाफत (हकूमत) के मुद्दे पर फिर तलवारें तन गईं परंतु हजरत हसन ने बुद्धिमता से काम लेते हुए अपना दावा वापस ले लिया। अमीर माविया ने पुत्र यजीद को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्होंने उसे खलीफा मानने से साफ इंकार कर दिया था, जिनमें हजरत अली (रजि) के भाई हजरत हुसैन सबसे आगे थे। मरने से पहले अमीर मुआविया ने यजीद को वसीयत की थी कि वह हजरत हुसैन को उसे खलीफा मानने के लिए मजबूर न करे, क्योंकि उसकी रगों में हजरत मोहम्मद साहब का खून है। यजीद ने इसकी परवाह न की और मदीने के हाकिम को लिख भेजा कि हजरत हुसैन को मुझे हाकिम मानने के लिए मजबूर करे। हजरत हुसैन ने कहा कि मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि सत्य से परे हट कर एक जालिम के साथ हाथ मिला लूं।
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आप मदीने से मक्का-मुकर्रमा आ गए। यजीद को पता लगा कि हजरत हुसैन कूफा की तरफ जा रहे हैं तो उसने फौरन कुफा के हाकिम को बदल कर इबने ज्याद (ज्याद के पुत्र) को वहां हाकिम बना कर भेज दिया जो बहुत जालिम व्यक्ति था। उसने कूफा के बहुत से लोगों को डरा-धमका कर अपने साथ मिला लिया। हजरत हुसैन को रास्ते में ही कुफा के लोगों की वायदा खिलाफी का पता चल गया और यह भी पता चल गया कि उनके चचेरे भाई हजरत मुस्लिम बिन अकील और उनके दो बच्चों को भी शहीद कर दिया है। मुहर्रम की दो तारीख को उनका काफिला फरात दरिया के किनारे करबला के मैदान में पहुंच गया।
आपने दुश्मनों के आगे झुकने और उनकी कोई भी शर्त मानने से साफ इंकार कर दिया। यजीद की फौजों ने आपके काफिले का पानी बंद कर दिया। करबला के मैदान की तपती हुई रेत ऊपर से पानी बंद। बच्चों को अपने सामने शहीद होते देखा, एक-एक कर सभी सगे-संबंधी शहीद हो गए परन्तु आपने जुल्म और जालिम के आगे सिर नहीं झुकाया।
जब आप अकेले रह गए तो दुश्मन की फौजों ने तीरों की बौछार कर दी। आप घोड़े से गिर गए। दोपहर की नमाज का समय था। आपने इसी हालत में अल्लाह के आगे आखिरी सजदे के लिए अपना सिर झुका दिया।
आप सजदे में थे कि दुश्मनों ने आपका सिर जिस्म से अलग कर दिया। यह दस मुहर्रम (यौम-ए-आशूरा) का दिन था। सच्चाई के रास्ते में इतना बड़ा बलिदान ढूंढने पर भी नहीं मिलता।