Edited By Jyoti,Updated: 18 Jun, 2022 11:51 AM
एक प्रसिद्ध मूर्तिकार अपने पुत्र को मूर्ति बनाने की कला में दक्ष करना चाहता था। उसका पुत्र भी लगन और मेहनत से कुछ समय बाद बेहद खूबसूरत मूर्तियां बनाने लगा। उसकी आकर्षक
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
एक प्रसिद्ध मूर्तिकार अपने पुत्र को मूर्ति बनाने की कला में दक्ष करना चाहता था। उसका पुत्र भी लगन और मेहनत से कुछ समय बाद बेहद खूबसूरत मूर्तियां बनाने लगा। उसकी आकर्षक मूर्तियों से लोग भी प्रभावित होने लगे, लेकिन उसका पिता उसकी बनाई मूर्तियों में कोई न कोई कमी बता देता था। शीघ्र ही उसकी कला में और निखार आया। फिर भी उसके पिता ने किसी भी मूर्ति के बारे में प्रशंसा नहीं की।
निराश युवक ने एक दिन अपनी बनाई एक आकर्षक मूर्ति अपने एक कलाकार मित्र के द्वारा अपने पिता के पास भिजवाई और अपने पिता की प्रतिक्रिया जानने के लिए स्वयं ओट में छिप गया। पिता ने उस मूर्ति को देखकर कला की भूरि-भूरि प्रशंसा की और बनाने वाले मूर्तिकार को महान कलाकार भी घोषित किया। पिता के मुंह से प्रशंसा सुन छिपा पुत्र बाहर आया और गर्व से बोला, ‘‘पिता जी वह मूर्तिकार मैं ही हूं। यह मूर्ति मेरी ही बनाई हुई है। इसमें आपने कोई कमी नहीं निकाली।
आखिर आज आपको मानना ही पड़ा कि मैं एक महान कलाकार हूं।’’पुत्र की बात पर पिता बोला, ‘‘बेटा एक बात हमेशा याद रखना कि अभिमान व्यक्ति की प्रगति के सारे दरवाजे बंद कर देता है। आज तक मैंने तुम्हारी प्रशंसा नहीं की। इसी से तुम अपनी कला में निखार लाते रहे। अगर आज यह नाटक तुमने अपनी प्रशंसा के लिए ही रचा है तो इससे तुम्हारी ही प्रगति में बाधा आएगी और अभिमान के कारण तुम आगे नहीं बढ़ पाओगे।’’ पिता की बातें सुन पुत्र को गलती का अहसास हुआ और पिता से क्षमा मांग कर अपनी कला को और अधिक निखारने का संकल्प लिया।