इस गांव के लोग एकलव्य के सम्मान में कर देते हैं अंगूठे का ‘त्याग’

Edited By ,Updated: 18 May, 2017 11:52 AM

people of this village tend to pay tribute to eklavya

मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल अलीराजपुर जिले के भील तथा भिलाला धनुर्धारी एकलव्य के सम्मान में धनुष-बाण चलाते हुए अपने अंगूठों का प्रयोग नहीं करते हैं। द्रोणाचार्य व अर्जुन का प्रतीकात्मक विरोध

मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल अलीराजपुर जिले के भील तथा भिलाला धनुर्धारी एकलव्य के सम्मान में धनुष-बाण चलाते हुए अपने अंगूठों का प्रयोग नहीं करते हैं। द्रोणाचार्य व अर्जुन का प्रतीकात्मक विरोध करने का उनका यह एक अलग ढंग है। महाग्रंथ महाभारत के गुरु-शिष्य द्रोणाचार्य व अर्जुन अधिकतर भारतीयों के मन में विशेष स्थान रखते हैं परंतु भील तथा भिलाला जनजाति के लोगों के मन में तो बस एकलव्य बसे हैं जिन्होंने अपने दाएं हाथ का अंगूठा काट कर द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा में भेंट कर दिया था। भिलाला समुदाय के नेता महेश पटेल कहते हैं, ‘‘प्रत्येक धनुर्धारी के लिए अंगूठे, मध्यमा तथा तर्जनी का प्रयोग महत्वपूर्ण होता है परंतु भील तथा भिलाला आदिवासियों के लिए दोनों हाथों के अंगूठों का प्रयोग जन्म से मृत्यु तक पूर्ण 
निषिद्ध है।’’


वह कहते हैं, ‘‘यह परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती रही है। तीर-कमान उठाते ही हम अपने अंगूठों का प्रयोग बंद कर देते हैं।’’


उनके अनुसार, ‘‘हम एकलव्य का आदर करते हैं और द्रोणाचार्य व अर्जुन से नफरत करते हैं। यह बात धनुष प्रयोग करने के दौरान अंगूठों का प्रयोग नहीं करने से भी साबित होती है। इसके बावजूद हमें तीरंदाजी में कभी कोई समस्या पेश नहीं आई और हम इस परम्परा को छोडऩे के बारे में सोच भी नहीं सकते।’’


अलीराजपुर मुख्यत: एक आदिवासी जिला है जिसकी कुल 7.28 लाख जनसंख्या में से 91 प्रतिशत आदिवासी हैं। जिले में आदिवासियों की जनसंख्या में भील व भिलाला 95 प्रतिशत हैं। 


जिले के प्रमुख आदिवासियों भिलालाओं के जन्म से मृत्यु तक तीर-कमान साथ रहते हैं। प्रत्येक भिलाला जन्म से तीरंदाज होता है और वे शिकारी जानवरों से अपनी बकरियों की रक्षा के लिए 6-7 वर्ष की उम्र में ही तीर-कमान सम्भाल लेते हैं। 
यहां तक कि निधन के बाद चिता पर भी ‘तीर-कामथी’ प्रत्येक भिलाला के साथ होती है। ये लोग ‘बिलकी’ (तीरों के जले हुए धातु के कोने) को घर में सौभाग्य की निशानी के रूप में रखते हैं। 


कौन थे एकलव्य
एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आए किन्तु उन्होंने उसे शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। निराश एकलव्य वन में चला गया। उसने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाई और उसे गुरु मान कर अभ्यास करते हुए अल्पकाल में ही धनुर्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया। एक दिन पाण्डव तथा कौरव राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के पास जा पहुंचा। उसके भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी अत: उसने अपने बाणों से उसका मुंह बंद कर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाए थे कि कुत्ते को चोट नहीं लगी। 

द्रोणाचार्य यह धनुर्कौशल देखकर दंग रह गए। यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि उन्हें मानस गुरु मानकर एकलव्य ने स्वयं ही अभ्यास से यह विद्या प्राप्त की है। उन्होंने एकलव्य से गुरुदक्षिणा के रूप में अपना अंगूठा काटकर देने को कहा। अंगूठा कट जाने के बाद एकलव्य तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने लगा। 

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