बेहद संस्कारी होते हैं ऐसे घर में रहने वाले लोग

Edited By Lata,Updated: 30 Dec, 2018 05:27 PM

people who live in such a house are highly cultured

घर में अगर छोटा बच्चा हो तो दिन कहां निकल जाता है कि पता ही नहीं चलता लेकिन जैसे-जैसे वह बच्चा बड़ा होता है तो उसके संस्कारों की चिंता घरवालों को सताने लगती है।

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घर में अगर छोटा बच्चा हो तो दिन कहां निकल जाता है कि पता ही नहीं चलता लेकिन जैसे-जैसे वह बच्चा बड़ा होता है तो उसके संस्कारों की चिंता घरवालों को सताने लगती है। इसी के चलते वे अपने बच्चों को किसी अच्छे स्कूल और कॉलेज में ही भेजते हैं। माता-पिता और अध्यापक लोग ही बच्चे को ज्ञान का मार्ग बताते हैं, उसे शिक्षित करते हैं। कहा जाता है कि बच्चा जब बोलना सीखता है तो वे पहला अक्षर अपनी मां से ही सीखता है। उसके संस्कारों की शुरुआत उसके अपने परिवार से ही होती है। परिवार द्वारा दिए गए संंस्कार ही जीवन में उसको कई तरह की बुलंदियों पर पहुंचाते हैं, जिससे उसके साथ-साथ उसके परिवार का नाम भी रौशन होता है। आज हम आपको ऐसे ही संस्कार के बारे में बताने जा रहे हैं जिसमें एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात बताई गई है। तो आइए जानते हैं उस संस्कार के बारे में
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अथर्ववेद का मंत्र कहता है-
अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु सम्मनाः। जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शंतिवाम्‌।


इस मंत्र में शिक्षा दी गई है कि पुत्र को माता-पिता की सेवा करनी चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए।

इस संसार को भगवान ने केवल खेल के लिए नहीं बनाया। इस संसार में ईश्वर, जीव और प्रकृति तीन सत्ताएं हैं। इनमें ईश्वर तो सबका अधिष्ठाता, सर्वज्ञ, सर्वशक्ति संपन्न है, अतः पूर्ण होने से वह दोषरहित है, पूर्ण विकसित है, परंतु जीवात्मा सदोष है, अवनत भी है, अल्पज्ञ है और उसे विकास की दिशा में चलना है। वास्तव में जीव स्वतंत्र है और उसकी आवश्यकताएं भी हैं। भगवान पूर्णकाम है, जीव पूर्णकाम नहीं है, उसे पूर्ण कामता या सुख या आनंद की आवश्यकता है। यह सृष्टि प्रभु ने जीव के विकास के लिए ही बनाई है।
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इसको हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि धरती पर दो तरह के जीव हैं एक मनुष्य और दूसरे अन्य सभी प्रकार के जीव। मनुष्य के अतिरिक्त सभी प्राणी भोगयोनि के प्राणी हैं अर्थात्‌ उनमें बुद्धि इतनी कम है कि उसके आचार की व्यवस्था ईश्वर ने अपने हाथ में रखी है। इसका तात्पर्य यह है कि जीवों के जैसे भोग होते हैं उनके अनुसार उन्हें कर्म भी करने पड़ते हैं। कर्म का भोग, भोग का कर्म, यही जड़-चेतन का आधार।
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उदाहरण के तौर पर जैसे एक बिल्ली है। उसने अपने असमर्थ और प्यारे बच्चे के लिए कटोरी में मलाई रखी। बच्चा हाथ में लेकर उसे खाना चाहता है। बिल्ली झपटी और सारी मलाई छीन ले गई। वैसे तो एक असहाय, अबोध बच्चे के ऊपर बिल्ली का यह व्यवहार अत्याचार हुआ, परंतु बिल्ली के कर्मों की व्यवस्था, बुद्धि की कमी के कारण उस बिल्ली पर नहीं। इसलिए उसका यह कर्म उसे निंदनीय ठहराने के लिए उपयुक्त नहीं होगा। जैसे बहुत छोटे बालकों पर बुद्धिमान पिता उनकी व्यवस्था का भार नहीं छोड़ता। लेकिन हां, विद्वान और संतान, अपना विधान अपने आप बनाने में आज़ाद है। चींटियां कितनी परिश्रमी और समझदार होती हैं, परंतु क्या उन्हें वेद की ऋचाओं और गीत के उपदेशों से शिक्षित किया गया है? परंतु मनुष्य को आचार शास्त्र द्वारा सब ट्रेनिंग दी जाती है। माता, पिता और आचार्य बच्चे के ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करते हैं, उसे शिक्षित और दीक्षित करते हैं।
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