Kundli Tv- असली Devotees में होते हैं ये गुण

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 09 Sep, 2018 11:38 AM

qualities of real devotee

जो उस परमात्मा की सत्ता को गहराई से स्वीकार कर लेता है, हर सुख-दुख को उनकी देन समझकर अपना लेता है वह शुद्ध यानि असली भक्त है। जैसे संत कबीर को भले ही एक समय रूखा-सूखा मिल जाता रहा हो लेकिन परमात्मा के प्रति उनकी कोई शिकायत नहीं थी, वह तो उसे अपना...

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जो उस परमात्मा की सत्ता को गहराई से स्वीकार कर लेता है, हर सुख-दुख को उनकी देन समझकर अपना लेता है वह शुद्ध यानि असली भक्त है। जैसे संत कबीर को भले ही एक समय रूखा-सूखा मिल जाता रहा हो लेकिन परमात्मा के प्रति उनकी कोई शिकायत नहीं थी, वह तो उसे अपना प्रारब्ध मानकर संतोष कर लेते थे। सूरदास नेत्रहीन थे परंतु परमात्मा के प्रति उनकी भक्ति अनन्य थी। पूर्ण समर्पित भक्त को जो भी प्राप्त है वह सब उस प्रभु को अर्पित कर उसकी आज्ञा को सर माथे स्वीकार कर लेते हैं। बाबा नानक की अनुभूत वाणी भी यही कहती है-
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जिसकी बसतु तिस आगै राखे। प्रभु की आज्ञा माने माथे।
उस ते चउगन करे निहाल। नानस साहिब सदा दइआलु।।


भक्त को जो भी प्राप्त होता है उसे प्रभु द्वारा दिया गया प्रसाद समझकर स्वीकार कर लेता है, उसकी इस भावना से मोहित होकर प्रभु भी उसे उसमें कई गुणा निहाल कर देते हैं। वह कहते हैं कि परमात्मा इतना दयालु है। भक्त परमात्मा से कभी भी इच्छा, कामना नहीं रखता। यदि वह परमात्मा से कामना करता भी है तो यही कि हे प्रभु! मेरी यह इच्छा है कि मेरी कोई इच्छा न रहे और यदि इच्छा रहे भी तो ऐसी रहे कि जैसे मीरा की कृष्ण के प्रति थी।
PunjabKesariमेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई। जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति  सोई।।

एक भक्त स्थित प्रज्ञता की स्थिति में पहुंचा होता है। स्थित प्रज्ञ पुरुष के लक्षणों पर ठाकुर ने गीता के दूसरे अध्याय के 55 से 72 श्लोक तक बहुत सुंदर उपदेश दिए हैं। एक श्लोक में उपदेश देते हुए ठाकुर ने कहा : 

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।


हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भली-भांति त्याग देता है, आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है उस काल में उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
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दुखों की प्राप्ति में जिसके मन में परेशानी नहीं रहती, सुखों की प्राप्ति में जो हमेशा उदासीन रहता है, जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो जाते हैं जो शुभ अथवा अशुभ वस्तु को पाकर न तो प्रसन्न होता है, न दुख करता है, इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, निवृत्ति ही जिसके जीवन का लक्ष्य होता है, प्रवृत्ति को अपना प्रारब्ध मानकर शांत रहता है, कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में भली-भांति स्थिर हो जाती है।

एषा ब्राह्मी स्थिति पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।


वस्तुत: इस प्रकार के लक्ष्णों से युक्त भक्त को परमात्मा कभी भी नहीं छोड़ता, वरन ऐसे भक्तों के पीछे-पीछे फिरता है। भगवान ने बहुत सुंदर रूप से अपने भक्तों की महिमा को व्याख्यानित किया है कि - 
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जहां भक्त मेरो पग धरे, तहां धरूं मैं हाथ।
पीछे-पीछे मैं फिरूं, कभी न छोडूं साथ।


जो निंदा स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है, इन सब प्रसंगों से जुड़े श्रद्धायुक्त पुरुष धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेम भाव से सेवन करते हैं वे भक्त ठाकुर को अतिशय प्रिय हैं: 
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तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी संतुष्टो येन केनचित्। 
अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर:।।
ये तु धम्र्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्धधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया:।।
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