Edited By Jyoti,Updated: 04 Jul, 2018 11:03 AM
‘ब्रह्मभोज का नाम सुनकर तू यहां चला आया, मगर जानता नहीं कि मुफ्त भोजन करना महापाप है? इसके लिए कुछ न कुछ सेवा तो तुम्हें करनी चाहिए। आ, मैं तुझे काम देता हूं। देख वहां कुछ वेदज्ञ ब्राह्मण बैठे हैं, उनके लिए चंदन घिस दे।’
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‘ब्रह्मभोज का नाम सुनकर तू यहां चला आया, मगर जानता नहीं कि मुफ्त भोजन करना महापाप है? इसके लिए कुछ न कुछ सेवा तो तुम्हें करनी चाहिए। आ, मैं तुझे काम देता हूं। देख वहां कुछ वेदज्ञ ब्राह्मण बैठे हैं, उनके लिए चंदन घिस दे।’
महाधीश ने एक ओर बैठे एक ब्राह्मण से कुछ अधिक ही कड़े शब्दों में कहा। वह ब्राह्मण निर्धन प्रतीत हो रहा था। महाधीश के शब्द उसे तीर की भांति चुभ गए, पर फिर भी मुख से कुछ न कहते हुए उसने खिन्न मन से चंदन घिसना शुरू किया।
चंदन घिसते-घिसते मन का ताप शमन करने के लिए वह राम नाम का जप करने लगा। लेकिन जब उसके मन का संताप शांत न हुआ तो अनजाने ही राम-नाम के स्थान पर ‘अग्निसुक्त’ गुनगुनाने लगा। लगभग एक घंटे में पर्याप्त चंदन तैयार हुआ और एक परिचारक उसे लेकर चला गया। युवक वहीं बैठा ‘अग्निसुक्त गुनगुनाता रहा। उपस्थित विप्रों ने जब अपने मस्तक पर चंदन का लेप किया तो वे अग्निदाह से तड़प उठे। सैंकड़ों ब्राह्मणों को जलन से छटपटाते देख ग्राम के मुखिया चिंतित हो उठे कि यह क्या अनर्थ हो रहा है। तभी कोई बात महाधीश के ध्यान में आई। तुरन्त युवक के पास जाकर उसने करबद्ध होकर कहा, ‘मान्यवर अज्ञानतावश मुझसे अपराध हो गया, कृपया क्षमा करें। मैंने आपको अकारण ही कष्ट दिया। कृपया अग्नि की जलन कम करें।’
महाधीश के आग्रह करते ही युवक जैसे अचेतन से जागा। उसके ध्यान में बात आई तो उसने तुरन्त अग्निसुक्त के स्थान पर वरुणसुक्त का पाठ शुरू किया। इससे विप्रों के मस्तक पर लगा चंदन शीतलता प्रदान करने लगा और ब्रह्मभोज निर्विघ्न सम्पन्न हो गया। तब ग्राम-प्रमुख ने युवक का परिचय प्राप्त कर उसके जीने-खाने की व्यवस्था की।
यही युवक आगे चलकर मध्य-मठ के आचार्य पीठ पर आसीन हुआ और ‘राघवेंद्राचार्य’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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