Edited By Lata,Updated: 10 Oct, 2019 09:55 AM
इसमें कोई शक नहीं कि मंदिर, तीर्थ आदि स्थान प्रभु आराधना के केन्द्र होते हैं। श्रद्धालुजन वहां अपने-अपने इष्ट देवता के
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इसमें कोई शक नहीं कि मंदिर, तीर्थ आदि स्थान प्रभु आराधना के केन्द्र होते हैं। श्रद्धालुजन वहां अपने-अपने इष्ट देवता के चरणों में भाव-विभोर होकर आराधना करते हैं लेकिन हम यह समझें कि वह पूजा-आराधना केवल मंदिर में नहीं, जीवन-व्यवहारों में भी दिखनी चाहिए। क्रोध के उत्तर में क्षमा करना भी पूजा है। वैर-विरोध के उत्तर में प्रेम-सद्भावना और हिंसा के उत्तर में अहिंसा भी पूजा है। दीन-दुखियों के दर्द और कष्ट निवारण के समय उनके प्रति करुणा-सेवा भी पूजा ही है।
परमात्मा के सामने पूजा-आराधना करना आसान है, लेकिन जीवन-व्यवहारों के साथ पूजा-भक्ति को जोड़ना कठिन है। हम यह भूल जाते हैं कि ईश्वर के दरबार में वही आराधना स्वीकार की जाती है जो जीवन से जुुड़ी हो। फिर अलग से पूजा की जरूरत ही नहीं है। हमारा यह कार्य, यह सोच ही उसकी पूजा होगी। उस स्थिति में हमारे हर कदम के साथ ईश्वर स्वयं होंगे। हमें उन्हें पुकारने की जरूरत नहीं, वे स्वयं हमें पुकारेंगे। यही वह मार्ग है जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है। आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है।
आत्मा और परमात्मा, भक्ति और पूजा शब्दों से परे हैं। शब्द समझाने या अभिव्यक्ति का माध्यम है लेकिन जब यह आग्रहों में ढलता है तब मतवाद सक्रिय हो जाता है। शास्त्रार्थ होने लगते हैं, ग्रंथ रचने का सिलसिला शुरू हो जाता है। जैसे यह अनंत आकाश हमारे सामने है। कोई उसे शून्य कह सकता है, कोई अनन्त तो कोई एक परम सत्ता। शब्दों को पकड़ कर उनकी समीक्षा करें तो हमें सर्वत्र भेद ही भेद दिखाई देंगे। अभेद दृष्टि से देखें तो एक में, अनन्त में, शून्य में कोई भेद नहीं। इसका अनुभव वही कर सकता है जो इंद्रियों के जगत के पार चला गया हो।