आज भी दिन-रात करते हैं गंगा मां की स्तुति, कौन हैं ये देव

Edited By Jyoti,Updated: 09 Jun, 2018 08:58 AM

religious concept of ganga maa and surya dev

त्वष्टा ऋचीको रक्षरच कम्बलाख्यस्तिलोत्तमा। ब्रह्मरातोऽथ शतजिद्धृतराष्ट्र इषंभरा।।1।। त्वष्टा शुभाय में भूयाच्छिष्टावलिनिषेवित:। नानाशिल्पकरो नानाधातुरूप : प्रभाकर:।। 2।। माघ मास में त्वष्टा नामक सूर्य (आदित्य) ब्रह्मरात ऋषि, तिलोत्तमा अप्सरा,...

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त्वष्टा ऋचीको रक्षरच कम्बलाख्यस्तिलोत्तमा।
ब्रह्मरातोऽथ शतजिद्धृतराष्ट्र इषंभरा।।1।।
त्वष्टा शुभाय में भूयाच्छिष्टावलिनिषेवित:।
नानाशिल्पकरो नानाधातुरूप : प्रभाकर:।। 2।।


माघ मास में त्वष्टा नामक सूर्य (आदित्य) ब्रह्मरात ऋषि, तिलोत्तमा अप्सरा, धृतराष्ट्र गंधर्व, कम्बल नाग, शतजित् यक्ष तथा ऋचीक राक्षस के साथ अपने रथ पर चलते हैं। वे शिष्टों द्वारा सेवित, नाना शिल्पों के आविष्कर्ता, विविध धातुमय, प्रभाकर भगवान त्वष्टा मेरा शुभ करें। त्वष्टा आठ हज़ार रश्मियों से तपते हैं।

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गंगादित्य का माहात्म्य
महाराज सगर सौवां अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे। देवराज इंद्र ने उनके यज्ञीय अश्व को चुराकर महर्षि कपिल के आश्रम में बांध दिया। महाराज सगर की छोटी रानी सुमति के साठ हज़ार पुत्र भूमि को खोदते हुए यज्ञीय अश्व की खोज में महर्षि कपिल के आश्रम में पहुंचे। वहां अश्व चरता हुआ दिखाई पड़ा। वे महर्षि को चोर समझ कर उन्हें मारने दौड़े। सगर-पुत्रों का दुर्भाग्य ही उन्हें यहां ले आया था। भगवान कपिल की क्रोधाग्रि की तीव्र ज्वाला में सब-के-सब जलकर भस्म हो गए।

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महाराज सगर के आदेश से अंशुमान यज्ञीय अश्व की तलाश में गए। उन्हें रास्ते में ही अपने पूर्वजों के भस्म होने का समाचार देवर्षि नारद से प्राप्त हुआ। वे भगवान कपिल के आश्रम में जाकर उनकी आज्ञा से अश्व लाए और महाराज सगर का यज्ञ पूरा हुआ।
अंशुमान को महर्षि कपिल ने बताया कि मेरी क्रोधाग्रि से भस्म तुम्हारे पूर्वजों का उद्धार केवल गंगाजल से ही संभव है। महाराज अंशुमानद और उनके पुत्र दिलीप दोनों ने गंगा को पृथ्वी पर उतारने का अथक प्रयत्न किया परन्तु सफल न हुए। दिलीप के पुत्र भगीरथ ने पिता और पितामह के उद्देश्य को सफ़ल करने का प्रण किया और शुरू हुआ-भगीरथ प्रयत्न।

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भगीरथ की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगा को धरा पर भेजने के लिए प्रस्तुत हुए। भगीरथ ने पुन: गंगा जी को धारण करने के लिए भगवान शंकर की कठोर तपस्या करके उनकी स्वीकृति प्राप्त की। उन्होंने अपनी जटाओं में गंगा जी को धारण कर लिया। गंगा पूरे एक वर्ष तक शिव की जटाओं में चक्कर लगाती रहीं और निकलने का मार्ग न पा सकीं। भगीरथ की प्रार्थना पर शंकर जी ने गंगा को छोड़ दिया और उनकी सात धाराएं हो गईं।


महाराज भगीरथ दिव्य रथ पर आगे-आगे चल रहे थे और गंगा जी उनका अनुगमन कर रही थीं। इस प्रकार भगीरथ काशी पहुंचे। वहां भगवान सूर्य ने अपने कुल के सर्वोत्कृष्ट प्रयत्न के फल गंगा की स्तुति की। आज भी वह गंगा को सम्मुख कर रात-दिन उनकी स्तुति करते रहते हैं और तब से उनका नाम गंगादित्य हुआ। उनके दर्शन मात्र से मनुष्य शुद्ध हो जाता है। गंगादित्य का दर्शन करने वाले न दुर्गति को प्राप्त होते हैं और रोगाक्रांत होते हैं। गंगादित्य का मंदिर वाराणसी के ललिता घाट पर स्थित है।
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