Edited By Niyati Bhandari,Updated: 05 May, 2021 01:16 PM
व्यक्तित्व के विकास और चरित्र निर्माण में संगति का अत्यधिक महत्व है। समाज की सबसे छोटी इकाई शिशु है। शिशु क्रमश: बालक/ बालिका से किशोर/ किशोरी और युवक/ युवती के रूप में परिवार का अंग बना रहता है।
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
Anmol Vachan- व्यक्तित्व के विकास और चरित्र निर्माण में संगति का अत्यधिक महत्व है। समाज की सबसे छोटी इकाई शिशु है। शिशु क्रमश: बालक/ बालिका से किशोर/ किशोरी और युवक/ युवती के रूप में परिवार का अंग बना रहता है। घर के अंदर और बाहर वाले, अन्य लोग जो उसके संपर्क में रहते हैं उनका उस पर प्रभाव पड़ता जाता है। माता-पिता और भाई बहनों का प्रभाव बढ़ती आयु के साथ-साथ घटता और बदलता जाता है। अपनी आयु वालों के संपर्क में आने से व्यक्ति के काम करने के तौर-तरीकों, चाल-ढाल आदतों व गुणों में बदलाव आने लगता है।
अपनी बस्ती, विद्यालय और पास-पड़ोस के व्यक्तियों का हमारे व्यवहार और व्यक्तित्व पर प्रभाव जाने या अनजाने रूप से पड़ने लगता है। अपने को पसंद लगने वाले लोगों की रीति-नीति, मन-भावन बन कर अनुकरणीय होती जाती हैं। दूरदर्शन/ कम्प्यूटर आदि माध्यम भी हमारे व्यवहार को बड़ी हद तक प्रभावित करते हैं क्योंकि यह भी संपर्क का ही एक रूप है।
Inspirational Context- किसी के साथ होना ही संग अथवा संगति कहा जाता है। संगी-साथियों का भाव मन पर बोलचाल के शब्दों और कामकाज सभी पर पड़ता है। समूह में सम्मिलित होने पर सामूहिक चित्तवृत्ति प्राय: उचित-अनुचित कुछ भी कर लेने की हो जाती है। कहा जाता है कि मनुष्य के ज्ञानवद्र्धन एवं चरित्र निर्माण के लिए तीन प्रमुख कारक हैं। प्रथम, सद्ग्रंथों का अध्ययन। दूसरा, तीर्थाटन में प्रकृति का दृश्यावलोकन तथा अन्य क्षेत्रों के अपरिचित लोगों के साथ मेल-मिलाप। तीसरा, ज्ञानवान लोगों के सद्विचार एवं ज्ञान-विज्ञानमय अनुभवों द्वारा ज्ञान प्राप्त करना।
वास्तव में देखें तो ये तीनों सत्संग ही हैं, सद्ग्रंथों के साथ सत्संग, तीर्थाटन में अन्य क्षेत्रों के लोगों तथा संत-महात्माओं के साथ सत्संग एवं ज्ञानी विद्वानों के साथ सत्संग। कहते हैं कि स्वाति नक्षत्र में वर्षा की बूंद को जिसका साथ मिलता है उसी के गुण वह जल बूंद ग्रहण कर लेती है।
‘सीप गए मोती भए,
कदली (केला) गए कपूर।
अहि (सर्प) सिर गए तो विष भए, संगति के फूल सूर॥’
Religious Katha- व्यक्ति संवद्र्धन में महाभारत में एक प्रसंग आता है। श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर और दुर्योधन को एक-एक कार्य सौंपा। युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘एक ऐसा व्यक्ति तलाश करके लाओ जो दुर्गुणों से ही पूरी तरह सम्पन्न हो’’ और दुर्योधन से कहा, ‘‘ऐसा व्यक्ति तलाश करके लाओ, जिसमें केवल सद्गुण हों, दुर्गुण न हो।’’
दोनों लौट कर जब आए तो दुर्योधन का उत्तर था, ‘‘मुझे तो सब दुर्गुणों में पूर्णत: लिप्त मिले। उन सबसे अच्छा सर्वगुण सम्पन्न केवल मैं ही हूं।’’
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, ‘‘मुझे कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला, जिसमें दुर्गुण होते हुए भी सद्गुण न हों।’’
इस प्रकार दुर्योधन केवल दुर्गुण ही खोज रहा था। उन दोनों का संग जिस प्रकार का था वैसी ही उनकी दृष्टि तथा सोचने का ढंग बन गया।
Inspirational Story- किसी के चरित्र की पहचान, उसके संगी-साथियों के आधार पर की जाती है। कहते हैं एक बार महर्षि विश्वामित्र और वशिष्ठ में श्रेष्ठता का विवाद उठ खड़ा हुआ। विश्वामित्र महान तपस्वी थे। तपस्या के बल से उन्होंने त्रिशंकु के लिए एक नए स्वर्गलोक की रचना कर डाली थी।
विश्वामित्र ने वशिष्ठ से कहा, ‘‘संसार में तपस्या से बढ़कर कुछ नहीं होता।’’
मुनि वशिष्ठ ने उत्तर दिया, ‘‘सत्संग तो तप साधना से भी श्रेष्ठ है।’’
निर्णय के लिए दोनों क्रमश: ब्रह्मा, शिव और विष्णु के पास भटकते रहे। विष्णु ने इन दोनों को नागराज आदि शेष (शेषनाग) के पास भेज दिया। शेषनाग के पास जाकर दोनों ने अपना विवादास्पद प्रश्र प्रस्तुत किया। शेषनाग ने कहा, ‘‘मैं उत्तर अवश्य दूंगा, पर आप में से कोई मेरे सिर के ऊपर से पृथ्वी का भार हटा दे।’’
दोनों ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘कृपया भार हटाने की विधि तो बता दें।’’
आदिशेष ने कहा, ‘‘आप अपनी तपस्या अथवा सत्संग से प्राप्त फल मुझे अर्पण कर दें तो मैं पृथ्वी के भार से मुक्त हो जाऊंगा।’’
इस पर विश्वामित्र ने कहा, ‘‘अपनी सौ वर्ष की तपस्या का फल मैं आपको अर्पित करता हूं।’’ परंतु आदिशेष पृथ्वी के भार से मुक्त नहीं हुए। इस पर विश्वामित्र ने अपने जीवन भर की तपस्या का फल भी अर्पित कर दिया, परंतु शेषनाग के सिर से पृथ्वी पर भार नहीं हटा।
तब वशिष्ठ बोले, ‘‘शेषनाग जी, मैं अपने क्षण भर के सत्संग का फल आपको देेता हूं।’’ और तत्काल आदिशेष के सिर से पृथ्वी का बोझ हट गया। विश्वामित्र जी का सिर लज्जा से झुक गया।
कहते हैं कि मोक्ष अथवा कैवल्य प्राप्त करने के मार्ग में चार द्वारपाल हैं। इनके नाम सत्संग, शांति, संतोष और सद्विचार हैं, पर इनमें से प्रमुख प्रहरी सत्संग है। सत्संगति से शेष तीनों स्वत: प्राप्त हो जाते हैं और शाश्वत आनंद का पथ प्रशस्त हो जाता है।
बाल अपराधियों पर शोधकार्य में यह ज्ञात हुआ है कि घर तथा विद्यालय से प्रताड़ित बच्चे, अपराधी समूहों की शरण में जा पहुंचे। आजकल के सीमित एकल परिवारों में, व्यावसायिक शिक्षा व्यवस्था में और संचार-माध्यमों द्वारा नकारात्मक असामाजिक प्रसंगों को प्रचार प्रधानता प्रदान करने से नई पीढ़ी का चरित्र निर्माण नहीं हो पा रहा है।
संत कबीर कहते हैं :
संगत कीजिए साधु की हरे और की व्याध।
संगत बुरी असाधु की आठों प्रहर उपाध॥
सद्गुणों व सकारात्मक विचारों से युक्त साथियों के साथ बैठने, खेलने और काम करने का परिणाम धीरे-धीरे स्वयं आचरण में उतरने लगता है। किसी आचारवान और मेधावी मित्र के साथ बैठने और मिलने-जुलने से, आपसी गुणों का आदान-प्रदान अपने आप होने लगता है।
नियमितता, समय प्रबंधन, अभिवादन और बड़ों का सम्मान करना, छोटों से स्नेह और बराबर वालों से सहयोग तथा मिल-बांट कर काम करने की प्रवृत्तियां जाग्रत होती हैं। अच्छे साथी से आत्मविश्वास और आत्मोन्नति की प्रेरणा प्राप्त होती है। इसी प्रकार बच्चे हों या बड़े, वे कुसंग के कारण आत्मोत्कर्ष के मार्ग से पथ-भ्रष्ट हो जाते हैं। वे कुमार्ग पर चल पड़ते हैं।