Religious Katha- ‘भक्ति’ की अद्भुत शक्ति के दर्शन करवाती है ये कथा

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 27 Apr, 2021 07:27 AM

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महाराज नाभाग के पुत्र भक्तराज अम्बरीष सप्त द्वीपवती पृथ्वी के एकमात्र सम्राट थे। सम्पूर्ण ऐश्वर्य के स्वामी होते हुए भी संसार के भोग पदार्थों में उनकी जरा भी आसक्ति नहीं थी। उनका सम्पूर्ण जीवन भगवान की सेवा में समर्पित था।

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Religious Katha- महाराज नाभाग के पुत्र भक्तराज अम्बरीष सप्त द्वीपवती पृथ्वी के एकमात्र सम्राट थे। सम्पूर्ण ऐश्वर्य के स्वामी होते हुए भी संसार के भोग पदार्थों में उनकी जरा भी आसक्ति नहीं थी। उनका सम्पूर्ण जीवन भगवान की सेवा में समर्पित था। महाराज अम्बरीष की सुरक्षा के लिए भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र को नियुक्त किया था जो गुप्त रूप से महाराज अम्बरीष के राजद्वार पर पहरा देते थे। एक समय महाराज अम्बरीष ने अपनी रानी के साथ श्रीकृष्ण की प्रीति के लिए वर्ष भर एकादशी व्रत का अनुष्ठान किया। अंतिम एकादशी के दूसरे दिन भगवान की विधिपूर्वक पूजा की गई। ब्राह्मणों को भोजन कराया गया और गौएं दान में दी गईं।

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इसके बाद राजा अम्बरीष पारण की तैयारी कर ही रहे थे कि अचानक महर्षि दुर्वासा शिष्यों सहित वहां पधारे। महाराज ने उनका आदर- सत्कार करने के बाद उनसे भोजन के लिए कहा। दुर्वासा जी ने उनका निवेदन स्वीकार कर लिया और मध्याह्न संध्या के लिए यमुना तट पर चले गए। द्वादशी केवल एक घड़ी शेष थी।

 द्वादशी में पारण न होने पर महाराज को व्रत भंग का दोष लगता, अत: उन्होंने ब्राह्मणों की आज्ञा से भगवान का चरणोदक पान करके भोजन के लिए महर्षि दुर्वासा की प्रतीक्षा करने लगे। दुर्वासा जी जब नित्य कर्म से निवृत्त होकर राजमहल लौटे तब उन्हें तपोबल से राजा के द्वारा भगवान के चरणामृत से पारण की बात मालूम हो गई।

उन्होंने क्रोधित होकर महाराज से कहा, ‘‘तू भक्त नहीं ढोंगी है। तूने मुझ अतिथि को निमंत्रण देकर भोजन कराने से पहले ही भोजन कर लिया है। अत: मैं अभी कृत्या के द्वारा तुझे नष्ट कर देता हूं।’’

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ऐसा कह कर उन्होंने अपने मस्तक से एक जटा उखाड़कर पृथ्वी पर पटक दी, जिससे कालाग्नि जैसी एक कृत्या उत्पन्न हुई और तलवार लेकर अम्बरीष को मारने दौड़ी। उसके अम्बरीष तक पहुंचने के पूर्व ही भगवान के सुदर्शन चक्र ने उसे जला देने के बाद मारने के लिए महर्षि दुर्वासा का पीछा किया।

महर्षि अपनी रक्षा के लिए तीनों लोकों और चौदहों भुवनों में भटके, परन्तु किसी ने भी आश्रय और अभय नहीं प्रदान किया। अंत में महर्षि दुर्वासा भगवान विष्णु के पास गए। भगवान ने भी उनसे कहा, ‘‘मैं तो भक्तों के अधीन हूं। मैं आपकी रक्षा करने में असमर्थ हूं। आपकी रक्षा करने का अधिकार केवल अम्बरीष को ही है, अत: आपको उन्हीं की शरण में जाना चाहिए।’’

अंतत: महर्षि दुर्वासा व्याकुल होकर महाराज अम्बरीष की शरण में गए। अम्बरीष उनकी प्रतीक्षा में तभी से खड़े थे जब से चक्र ने उनका पीछा किया था। उन्होंने सुदर्शन चक्र की स्तुति की और महर्षि दुर्वासा को क्षमादान दिलाया।

 यह है भगवान की भक्ति की शक्ति और भक्त की करूणा। महर्षि दुर्वासा भगवान की भक्ति की शक्ति को प्रणाम करके तपस्या के लिए वन को चले गए।

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