Vallabhacharya Jayanti 2022: जब श्री वल्लभाचार्य आकाश में विलीन हो गए...

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 26 Apr, 2022 07:49 AM

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श्री वल्लभाचार्य का जन्म विक्रम संवत 1535, वैशाख कृष्ण एकादशी को चम्पारण्य में हुआ था। इनकी माता का नाम इलम्मा तथा इनके पिता का नाम श्री लक्ष्मण भट्ट था। इनके पिता सोमयज्ञ की पूर्णाहुति पर काशी में एक

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Vallabhacharya Jayanti 2022: श्री वल्लभाचार्य का जन्म विक्रम संवत 1535, वैशाख कृष्ण एकादशी को चम्पारण्य में हुआ था। इनकी माता का नाम इलम्मा तथा इनके पिता का नाम श्री लक्ष्मण भट्ट था। इनके पिता सोमयज्ञ की पूर्णाहुति पर काशी में एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराने जा रहे थे, उसी समय रास्ते में चम्पराण्य में श्री वल्लभाचार्य का जन्म हुआ था। इनके अनुयायी इन्हें अग्नि देव का अवतार मानते हैं। उपनयन संस्कार के बाद इन्होंने काशी में श्री माधवेंद्रपुरी से वेद शास्त्रों का अध्ययन किया। ग्यारह वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने वेद, उपनिषद, व्याकरण आदि में पाण्डित्य प्राप्त कर लिया था। उसके बाद श्री वल्लभाचार्य तीर्थाटन के लिए चल दिए।

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वैष्णवाचार्य की उपाधि
श्री वल्लभाचार्य ने विजय नगर के राजा कृष्ण देव की सभा में उपस्थित होकर वहां के बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में हराया। वहीं इन्हें वैष्णवाचार्य की उपाधि प्राप्त हुई। राजा कृष्ण देव ने स्वर्ण सिंहासन पर बैठा कर इनका सविधि पूजन किया। पुरस्कार में इन्हें बहुत सी स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त हुईं, जिनको इन्होंने वहां के विद्वान ब्राह्मणों में वितरित करवा दिया। 

विजय नगर से चलकर श्री वल्लभाचार्य उज्जैन आए और वहां शिप्रा के तट पर इन्होंने एक पीपल के वृक्ष के नीचे साधना की। वह स्थान आज भी इनकी बैठक के नाम से प्रसिद्ध है। इन्होंने वृंदावन, गिरिराज आदि कई स्थानों में रह कर भगवान श्री कृष्ण की आराधना की। अनेक बार इन्हें भगवान श्री कृष्ण का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ। इनके जीवन काल में ऐसी अनेक घटनाएं हुईं, जिन्हें सुनकर घोर आश्चर्य होता है। 

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अहंकार को तोड़ा
एक बार की बात है एक सज्जन शालग्राम शिला और भगवान की प्रतिमा दोनों की एक साथ पूजा करते थे। वे प्रतिमा को शिला से कनिष्ठ श्रेणी की समझते थे। श्री वल्लभाचार्य ने उन्हें समझाया कि भगवद विग्रह में भेद बुद्धि अनुचित है। उस सज्जन ने आचार्य के सुझाव को अपना अपमान समझा और अहंकार में शालग्राम शिला को रात में प्रतिमा के ऊपर रख दिया। प्रात: काल उन्होंने देखा कि प्रतिमा के ऊपर रखी हुई शालग्राम शिला चूर-चूर हो गई थी। 

इस घटना को देख कर उनके मन में पश्चाताप का उदय हुआ और उन्होंने श्री वल्लभाचार्य से अपनी भूल के लिए क्षमा याचना की। आचार्य श्री ने उन्हें चूर्ण शिला को भगवान के चरणामृत में भिगोकर गोली बनाने का आदेश दिया। ऐसा करने पर शालग्राम शिला पूर्ववत हो गई।

अनेक ग्रंथों की रचना की
कहते हैं कि भगवान श्री कृष्ण ही इनके यहां विट्लठ के रूप में पुत्र बनकर प्रकट हुए थे। श्री वल्लभाचार्य ने लोक कल्याण के लिए अनेक ग्रंथों की रचना की। अपने जीवन के अंतिम समय में ये काशी में निवास करते थे। एक दिन वह जब हनुमान घाट पर स्नान कर रहे थे, उसी समय वहां एक ज्योति प्रकट हुई और देखते ही देखते इनका शरीर उस ज्योति में ऊपर उठकर आकाश में विलीन हो गया। 

इस प्रकार विक्रम संवत 1587 में 52 वर्ष की अवस्था में अनेक नर-नारियों को भक्ति पथ का पथिक बनाकर श्री वल्लभाचार्य ने अपनी लौकिक लीला का संवरण किया।

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