Edited By ,Updated: 19 Dec, 2016 12:51 PM
धर्म का तत्व
जब पांडव वन में रहते थे, उस समय द्रौपदी ने महाराज युधिष्ठिर से प्रश्न किया, ‘‘महाराज! आप धर्म को छोड़कर एक पांव भी आगे नहीं रखते, किसी का भी अनिष्ट नहीं करते पर जंगल में भटकते हैं।
धर्म का तत्व
जब पांडव वन में रहते थे, उस समय द्रौपदी ने महाराज युधिष्ठिर से प्रश्न किया, ‘‘महाराज! आप धर्म को छोड़कर एक पांव भी आगे नहीं रखते, किसी का भी अनिष्ट नहीं करते पर जंगल में भटकते हैं। अन्न-जल भी पास में नहीं है, फल-फूल आदि खाकर जीवन निर्वाह करते हैं। परंतु जो अन्याय ही अन्याय करता है वह दुर्योधन खूब मौज कर रहा है, राज कर रहा है। तो धर्म-कर्म कुछ है कि नहीं? ईश्वर कोई न्याय करता है कि नहीं?’’
महाराज युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘देवी! तेरे भीतर यह बात कैसे पैदा हुई? जो अपनी सुख-सुविधा के लिए धर्म का पालन करता है, वह धर्म के तत्व को नहीं जानता। धर्म का तत्व तो वह जानता है जो कष्ट पाने पर भी धर्म का त्याग नहीं करता। धर्म का महत्व है, सुख-सुविधा का नहीं। सुख-सुविधा का महत्व तो पशुओं में भी है। मैं सुख-सुविधा पाने के लिए धर्म का पालन नहीं करता।’’
अधर्म दुर्योधन के स्वभाव में था। वह धर्म और अधर्म को भली प्रकार जानता था लेकिन अधर्म उसका स्वभाव होने के कारण वह धर्माचरण न कर सका। जब भी वह अपने स्वभाव के विपरीत जाकर भगवान श्री कृष्ण, भीष्म पितामह, विदुर जी का सम्मान करता था, वह उसका मिथ्या आचरण होता था।
इसके विपरीत युधिष्ठिर का धर्म आचरण उनके स्वभाव के अनुरूप था। उन्हें सत्य भाषण में आनंद प्राप्त होता था। एक बार जब युद्ध भूमि में उन्हें असत्य बोलना पड़ा तो उन्हें बहुत कष्ट हुआ।
दया, करूणा इत्यादि गुण अगर जीव के स्वभाव में आ जाएं तो वह परोपकार के कार्य अपने अंत:करण की प्रसन्नता के लिए करता है, दिखावे के लिए नहीं। स्वभाव से ही जीव के धर्म अर्थात कर्तव्य का निर्धारण होता है। इसलिए धर्म आचरण की विषय वस्तु है दिखावे की नहीं।