Edited By Punjab Kesari,Updated: 12 Jul, 2017 11:49 AM
स्वामी रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी शारदामणि माता काली की अनन्य भक्त थीं और वह काली मां का शृंगार बड़े प्रेमपूर्वक करती थीं। इस कार्य में अन्य
स्वामी रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी शारदामणि माता काली की अनन्य भक्त थीं और वह काली मां का शृंगार बड़े प्रेमपूर्वक करती थीं। इस कार्य में अन्य महिलाएं भी उनकी सहायता करतीं और प्रतिमा को अलंकृत करने में प्रसन्नता का अनुभव करती। काली मां की प्रतिमा को सजाने में जो महिलाएं मदद करती थीं उनमें एक महिला ऐसी भी थी जो कुल और शील की दृष्टि से नीची समझी जाती थी।
माता शारदामणि यह सब जानती थीं, पर उन्होंने कभी उस महिला को रोका नहीं बल्कि अन्य संभ्रांत महिलाओं की तरह ही उसे आदर दिया और अलंकार विधि में प्रेमपूर्वक भाग लेने दिया। एक दिन एक कुलीन महिला ने माताजी से कहा कि अमुक स्त्री उच्च कुल की नहीं है। वह नीच कुल की और गिरे चरित्र की है, उसे आप माता की प्रतिमा छूने न दिया करें बल्कि उसे मंदिर से बाहर ही रखें तो अच्छा रहेगा।
शारदामणि ने उसे समझाते हुए कहा कि देखो पुत्री, गंगा में सभी स्नान करते हैं, उसमें नहाने वालों में मैले और मलिन भी होते हैं, पर इससे गंगा मां की न तो पवित्रता नष्ट होती है और न ही उनकी महिमा घटती है। जीवन में यदि कोई गिरता है, अपने ही दोषों से गिरता है। स्पर्श किसी को कभी नहीं गिरा सकता। फिर पापनाशिनी कहलाने वाली काली माता की पुण्यप्रभा उस महिला के स्पर्श से कैसे मलिन हो जाएगी।
उस महिला को अपनी भूल समझ आ गई। उसे अहसास हो गया कि माताजी कह रही हैं कि हमें पाप से घृणा करनी चाहिए, पापी से नहीं। उसने उसी क्षण अपने विचार बदल लिए और शारदामणि माता से क्षमा मांगी। मां शारदामणि न केवल उच्च कोटि की साधिका थीं बल्कि वह सभी आश्रमवासियों की प्रिय, आदरणीय होने के साथ-साथ उनकी मां भी थीं। रामकृष्ण परमहंस भी उनको मां कह कर संबोधित करते थे।