मानो या न मानो: भगवान राम भी जाते थे, वन में शिकार खेलने

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 02 Apr, 2020 12:13 PM

religious story of shri ram

भगवान श्रीराम गुणों के समुद्र, परम धर्मज्ञ तथा लोगों का उपकार करने वाले थे। वे सत्यवक्ता तथा दृढ़ प्रतिज्ञ थे। उनके भरत आदि भाई भी उनके व्यवहार का अनुसरण करने वाले तथा उनकी आज्ञा का पालन करने वाले थे।

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भगवान श्रीराम गुणों के समुद्र, परम धर्मज्ञ तथा लोगों का उपकार करने वाले थे। वे सत्यवक्ता तथा दृढ़ प्रतिज्ञ थे। उनके भरत आदि भाई भी उनके व्यवहार का अनुसरण करने वाले तथा उनकी आज्ञा का पालन करने वाले थे। श्रीराम चंद्र जी अपनी माता कौशल्या का आनंद बढ़ाने वाले तथा हिमालय के समान धैर्यवान थे।

श्रीराम की प्रत्येक लीला में गंभीर रहस्य है। उसके द्वारा लोगों को शिक्षा मिलने के साथ भक्तों के उद्धार का मार्ग प्रशस्त होता है। गुरु-आश्रम से लौटने के बाद श्रीराम अपने पिता महाराज दशरथ के साथ अब राजकाज में भी हाथ बंटाने लगे। वह प्रजा को खूब धन बांटते तथा दीन-दुखियों की सहायता करते थे। माता-पिता की आज्ञा का पालन करते थे एवं उन्हें हर तरह से सुखी रखने का प्रयास करते थे। श्रीराम सदैव यह प्रयास करते थे कि प्रजा के साथ किसी भी प्रकार का अन्याय न हो, सबको न्याय मिले। उनकी प्रजा-वत्सलता को देखकर अयोध्या की सम्पूर्ण प्रजा उनसे प्राणों से भी बढ़कर प्रेम करती थी।

कभी-कभी श्रीराम अपने भाइयों, सखाओं तथा सेवकों को साथ लेकर दूर वन में शिकार खेलने के लिए जाते थे। उनको देखकर वन के पशु-पक्षी तथा हिसक जीव भी अपने परस्पर वैर-भाव को भूलकर श्रीराम के सन्निकट चले आते थे तथा प्रेम से एकटक निहारते हुए श्रीराम के अनुपम सौंदर्य का आंखों से रसपान करते थे। भगवान श्रीराम जान-बूझकर केवल ऐसे मृगों का आखेट करते थे, जो पूर्व जन्म में विशेष पुण्यात्मा थे और किसी चूकवश या शापग्रस्त होकर मृग योनि में पड़कर कष्ट भोग रहे थे। श्रीराम के हाथों मृत्यु होने पर वे मृग तत्काल अपनी भोग-योनि से छुटकारा प्राप्त कर भगवान के धाम चले जाते थे। इस प्रकार श्रीराम मृगया के द्वारा भी पुण्यात्माओं का उद्धार कर उन्हें अपना पावन धाम दे रहे थे।

शिकार के द्वारा भगवान श्रीराम के अस्त्र-शस्त्र के संचालन का अभ्यास भी दृढ़ हो रहा था क्योंकि आगे चलकर उन्हें आततायी राक्षसों का वध करना था।

इस तरह भगवान श्रीराम अपनी नित्य-नवीन लीलाओं से अपने माता-पिता तथा अयोध्यावासियों का आनंद बढ़ा रहे थे। यद्यपि यह सत्य है कि भगवान की अवतार-लीला का एक उद्देश्य साधुओं का संरक्षण और दृष्टों का विनाश भी है, किंतु यह गौण प्रयोजन है। भगवान की अवतार-लीला का मुख्य प्रयोजन तो भक्तों को आनंद देना ही है। इसी के व्याज से दुष्टों का विनाश, साधु-परित्राण, धर्म की स्थापना आदि की लीलाएं अनायास ही संपन्न हो जाती हैं। स्वर्ग और मोक्ष तो मृत्यु के बाद मिलता है परंतु भक्तों को भगवद्लीला के दर्शन और श्रवण से जीते-जी ही जीवन्मुक्ति का अनुभव प्राप्त हो जाता है। ऐसे श्रीराम की लीलाओं का नित्य रसपान करने वाले महाराज दशरथ, उनकी सौभाग्यशाली रानियां तथा अयोध्यावासी धन्य हैं। 

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