Edited By Jyoti,Updated: 31 Oct, 2019 09:56 AM
पटेल के बारे में बी. कृष्णा की एक पुस्तक है, जिसका शीर्षक है- ‘इंडियन आयरन मैन’। इसमें उन्होंने सरदार के बारे में अनेक रोचक और स्तब्ध करने वाली बातें बताई हैं।
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पटेल के बारे में बी. कृष्णा की एक पुस्तक है, जिसका शीर्षक है- ‘इंडियन आयरन मैन’। इसमें उन्होंने सरदार के बारे में अनेक रोचक और स्तब्ध करने वाली बातें बताई हैं। वे लिखते हैं कि प्रारंभ में महात्मा गांधी सरदार पटेल के नाम पर विचार कर रहे थे लेकिन मौलाना आज़ाद ने उन्हें नेहरू पर आग्रह करने के लिए कहा ताकि सैक्युलरवाद के संदर्भ में कांग्रेस की छवि बच सके। कहते हैं बाद में स्वयं मौलाना आज़ाद पछताए।
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने तत्कालीन मद्रास में एक सभा में कहा था कि पश्चाताप स्वरूप एवं अपना मन हल्का करने के लिए वे कहना चाहते हैं कि सरदार पटेल का समर्थन न करके उन्होंने बहुत बड़ी गलती की। ऐसा लगता है सरदार का समय वास्तव में अब आया। आज देश में जो अविश्वसनीय एवं ऐतिहासिक निर्णय लिए जा रहे हैं वे वास्तव में व्यावहारिक सरदार ही कहे जा सकते हैं। पर यह समझने के लिए बहुत ज़रूरी है कि हम सरदार के उस तत्व को समझें जिसने उन्हें लौह पुरुष बनाया या लौह पुरुष के नाते विख्यात किया।
न झुके न रुके सरदार
दिल्ली में एक लौह स्त भ है, 1600 साल से ज्यादा हो गए उसे बने पर उस पर जंग नहीं लगी। ऐसा लोहा जिसने सदियों के तूफान, हमले और विपरीत परिस्थितियां झेलते हुए भी अपना लोहापन बनाए रखा। दुनिया भर के अनुसंधानकत्र्ता आकर शोध कर गए पर समझ नहीं पाए कि यह कैसा लोहा है। मैं आज बताता हूं। यह सरदार पटेल के परिवार का लोहा है। सरदार इस लोहे की पर परा के थे। न जंग लगी, न झुके, न टूटे, न रुके।
दांडी सत्याग्रह में उन्हें गिर तार किया गया क्योंकि अंग्रेज डर गए थे तो उस वक्त यानी 30-31 में साबरमती के सामने 75 हजार लोग इक्ट्ठे हो गए थे और कहा था कि सरदार की एक बात पर हम सब कुछ दे देंगे। यह बात कैसे जन्मी? क्योंकि सरदार ने जनता के दुख-दर्द के साथ एकरूपता हासिल कर ली थी। 1923 में बोरसद में डकैतों का भी आतंक था, उस पर अंग्रेजों ने गांव वालों पर टैक्स थोप दिया। सरदार चट्टान की तरह खड़े हो गए। गांव जीता। टैक्स का आदेश वापस हुआ। 1928 में बारदोली सत्याग्रह हुआ। सरदार ने महिला शक्ति को जुटाया जिनमें मिट्टी बेन पेटिट, भक्ति बा, मणिबेन पटेल, शारदा बेन शाह और शारदा मेहता जैसी जागृत महिलाओं ने आंदोलन को ताकत दी। बारदोली सत्याग्रह का ही यह कमाल और सफलता थी कि पराक्रमी महिला सत्याग्रहियों ने वल्लभभाई को सरदार की उपाधि दे डाली और तब से लेकर वल्लभ भाई सरदार के नाते ही जाने गए।
पर इससे पहले की बात तो आप समझिए। 1919 में जब असहयोग आंदोलन हुआ था तो सरदार पटेल ने गांधी जी के लिए गुजरात के गांव-गांव में घूमकर तीन लाख कार्यकत्र्ता जुटाए थे और उस जमाने में पंद्रह लाख रुपए इकट्ठे करके गांधी जी को दिए थे।
असहयोग आंदोलन में योगदान
1930 के जन असहयोग आंदोलन में सरदार को रास गांव से गिर तार कर लिया गया। सरदार ने गांव वालों से कहा कि क्या तुम टैक्स देना बंद कर सकते हो? सबने हां कहा और टैक्स देने से इंकार करने पर उनकी खेती की जमीनें अंग्रेजों ने जब्त कर लीं। सोचिए वह कैसा महान वाणी का चमत्कार होगा कि सरदार के कहने पर लोगों ने अपनी खेती, अपनी जमीन गंवाना मंजूर कर लिया लेकिन समझौता नहीं किया। उस समय की एक घटना भी है कि गांव वालों को पता चला कि अंग्रेज पुलिस वाले उन्हें गिर तार करने आने वाले हैं तो वे गिर तारी से बचने के लिए घर का सारा सामान जो इकट्ठा कर सकते थे लेकर सरहद पार कर गए लेकिन अंग्रेजों के सामने झुके नहीं। जमीन चली गई तो खाएंगे क्या? सरदार ने अहमदाबाद के उद्योगपतियों से कह कर 300 मन कपास भिजवाई ताकि वे परिवार का भरण-पोषण कर सकें।
सरदार कभी बाजार के खादी भंडार से खादी नहीं खरीदते थे। उनकी बेटी मणिबेन जो सूत कातती थीं उसी से बने कपड़े पहनते थे। एक बार जब सरदार काफी बीमार होकर देहरादून के सर्किट हाऊस में चिकित्सा करवा रहे थे, उस समय उनकी आयु 74 वर्ष थी। उस समय देहरादून के सांसद महावीर त्यागी उनसे मिलने आए तो देखा उनकी बेटी मणिबेन खादी की ऐसी साड़ी पहने हुए हैं जिसके एक कोने पर दूसरे कपड़े से पैबंद लगा हुआ था। महावीर त्यागी हंसी-मजाक करने वाले नेता थे। बोले, अरे मणिबेन जिस सरदार ने एक साल में इतना बड़ा साम्राज्य खड़ा कर दिया जो न अशोक का था, न अकबर का और न ही अंग्रेजों का, उसकी बेटी पैबंद लगी साड़ी पहनेगी और शहर में अगर चली गई तो लोग भिखारी समझकर पैसे देने लग जाएंगे।
सरदार यह सुनकर जोर से हंस पड़े और बोले, देहरादून के बाजार में भीड़ बहुत होती है, शाम होने तक मणि को अच्छी-खासी रकम मिल जाएगी। डा. सुशीला नैयर भी यह विनोद सुन रही थीं, उन्होंने महावीर त्यागी से कहा, ''त्यागी, मणिबेन सारा दिन सरदार साहब की देखभाल में बिताती हैं, उसके बाद दिन भर की डायरी लिखती हैं और फिर चरखे पर सूत कातती हैं। उसी सूत से सरदार के कपड़े बनते हैं क्योंकि वे खादी भंडार से तो कभी कपड़ा खरीदते नहीं। सरदार साहब के जो कपड़े पुराने हो जाते हैं, उन्हीं को सिलकर मणिबेन अपने कपड़े बनाती हैं। वह बेचारी कहां से नए कपड़े लाए।
“सरदार इस पर चुप नहीं रहे और बोले, ''वह कैसे अच्छे कपड़े ले सकती है? उसका बापू तो कुछ कमाता ही नहीं है।“
ऐसे थे सरदार। जिन्होंने अपने लिए कुछ नहीं कमाया पर हमारे लिए देश की एकता कमाकर दे गए।