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Edited By Niyati Bhandari,Updated: 13 Sep, 2019 08:57 AM

self help tips about happy life in hindi

सत्संग के बिना भगवत्कथा सुनने को नहीं मिलती, भगवान की कथाओं को सुने बिना मोह दूर नहीं होता, मोह की निवृत्ति के बिना भगवच्चरणाविंद में अनुराग नहीं होता तथा अनुराग के बिना किए संपूर्ण साधन

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सत्संग के बिना भगवत्कथा सुनने को नहीं मिलती, भगवान की कथाओं को सुने बिना मोह दूर नहीं होता, मोह की निवृत्ति के बिना भगवच्चरणाविंद में अनुराग नहीं होता तथा अनुराग के बिना किए संपूर्ण साधन भगवत् प्राप्ति नहीं करा सकते। सत्संग से जीवन में सारे सद्गुणों का समावेश होता है, जिससे मानव जीवन सफल होता है। नारद जी ने ‘महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा’ (नारद भक्तिसूत्र-38) कह कर बताया कि सिद्धा प्रेम स्वरूपिणी भक्ति संत-महापुरुषों की कृपा के द्वारा अथवा लेशमात्र भगवत्कृपा से प्राप्त होती है।

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अधिकांश लोग कहते हैं कि हमें व्यस्तता के कारण सत्संग का समय नहीं मिलता। शरीर से ज्यादा शरीर (जीवात्मा) का महत्व है। जितना भोजन, वस्त्र तथा सुख-सुविधाएं शरीर के लिए आवश्यक हैं, उतना सत्संग शरीर के लिए आवश्यक है। सत्संग करते हुए संत-महात्माओं से वह युक्ति पता चलती है। जिससे केवल भगवान की मूर्ति में ही नहीं, भगवान की बनाई चलती-बोलती मूर्तियों (सभी प्राणियों) में भगवान का दर्शन होने लगता है। सभी कार्य भगवान की सेवा-पूजा बन जाते हैं।

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सत्संग, भगवद्भजन तथा ध्यानादि के समय जितना हृदय शुद्ध होता है उतना यदि सदैव रहे तो एक जन्म में कल्याण हो जाए। एक घर में अकेली बुढिय़ा रहती थी, आटा पीसने के लिए वह गेहूं बीनने लगी। इस दौरान कुछ दाने बिखर जाते थे, उन्हें शाम को जब उठाने लगती थी तो रतौंधी रोग आंखों में होने से कुछ कूड़ा-कर्कट भी उठा कर गेहूं में मिला लेती थी, दूसरे दिन फिर बीनती परंतु कुछ दिनों बाद उसका गेहूं शुद्ध हो गया। वैसे ही सत्संग भगवद् भजन ध्यानादि के बाद काम, क्रोधादि विकारों से अंत:करण के पुन: मलिन होने के कारण कई जन्म आत्मोद्धार में लग जाते हैं, क्योंकि उस बुढिय़ा के गेहूं की तरह हम अपने हृदय को पुन: मलिन कर लेते हैं। यदि सत्संग भगवद् स्मरण के समय तथा भगवान के मंदिर में मूर्ति के सामने जितना अंत:करण शुद्ध होता है, उतना सदैव रहे तो एक जन्म में ही कल्याण हो जाए। संसार से सुख की चाह तथा सांसारिक आसक्ति से जीवन में विकार बढ़ते हैं। 

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याद रखो, आवश्यकताओं की पूर्ति तो हो सकती है परंतु कामनाओं की पूर्ति नहीं हो सकती। 

अन्तो नास्ति पिपासाया:। यहां तृष्णा को प्यास कहा गया है। पानी पीने के बाद प्यास बुझती है परंतु कुछ घंटों के बाद फिर लग जाती है, वैसे ही एक इच्छा की पूर्ति होते ही दूसरी इच्छा फिर उत्पन्न हो जाती है। संसार में मनुष्य त्यागी बनकर आता है तथा महात्यागी बनकर (धन संपत्ति तथा शरीर को भी छोड़कर) जाता है। तो बीच में ही क्यों अति-संग्रही बनकर आसक्ति बढ़ाई जाए। सत्संग से विवेक की जागृति होने पर आसक्ति मिटती है। मार्कण्डेय पुराण (37/23) में कहा गया है- संग: सर्वात्मना त्याज्य: स चेत् त्यक्तुं न शक्यते। स सद्भि: सह कत्र्तव्य: सतां संगो हि भेषजम्।।

संग अर्थात आसक्ति का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, यदि ऐसा न कर सकें तो सत्पुरुषों का संग ही आसक्ति को मिटाने की औषधि है। जैसे कांटे से कांटा निकलता है वैसे ही सत्संग की आसक्ति संसार की आसक्ति को मिटाती है।

नारद जी ने ‘महत्संगस्तु दुर्लभो-ऽगम्योऽमोघश्च’ (भ.सू. 39) कह कर संत-महापुरुषों की प्राप्ति दुर्लभ तथा अगम्य बताई है परंतु उसका अमोघ प्रभाव बताया है अर्थात महापुरुषों के सान्निध्य से अवश्य ही कल्याण होता है। सत्संग की दो परिभाषाएं हैं- (1) सतां सज्जनानां संग सत्संग:, (2) सत् वस्तूनां संग: सत्संग: सत्पुरुषों का संग सत्संग है तथा सतवस्तु (परमात्मा) का संग सत्संग है। 

बिजली प्राप्त करने के दो तरीके हैं या तो पावर हाऊस कनैक्शन करें या जिस खंभे का संबंध पावर हाऊस से हो उससे कनैक्शन करें, बिजली दोनों उपायों से प्राप्त हो जाती है। ईश्वर पावर हाऊस है और संत खंभे हैं। संतों की पहचान होना कठिन है- महेश्वरानंद संत गति, जगत न जानी जाय। बाहर संसारी दिखे, अन्तर ज्ञान छिपाए।।

संतों को पहचानने का तरीका यही है कि जिनके संग से दोष-दुर्गुण दूर होने लगें, सन्मार्ग की ओर प्रवृत्ति होने लगे उन्हें संत समझो तथा जिनके संग से दोष, दुर्गुण, दुष्प्रवृत्ति व अशांति बढ़े, कितना ही अच्छा वेश व आकृति क्यों न हो, उनका संग त्याग देना चाहिए। स्वच्छ जल से शरीर शुद्ध होता है, संस्कार से संतान शुद्ध होती है, तपस्या से इन्द्रियां शुद्ध होती हैं, यज्ञ से ब्राह्मण शुद्ध होते हैं, दान से धन शुद्ध होता है, संतोष से मन शुद्ध होता है, सत्संग व सत्साहित्य से बुद्धि शुद्ध होती है। यदि हृदय स्वच्छ व सुंदर न हो तो शरीर के स्वच्छ व सुंदरतम होने से कोई लाभ नहीं है। सत्संग से भगवत्कथाएं और भक्तों के चरित्र सुनने को मिलते हैं, जिससे भगवान के प्रति प्रेमभाव जागता है। श्रीमद्भागवत में कहा है- सत्संगंलब्धया भक्त्या मयि मा स उपासिता। (11/11/25)

भगवान श्रीकृष्ण जी ने उद्धव जी से कहा- सत्संग द्वारा मेरे गुण, प्रभाव एवं स्वभाव का ज्ञान होने पर भक्ति उत्पन्न होती है, तब वह भक्तिपूर्वक मेरी उपासना करता है। संत-उपदेशक तात्विक विषय की गंभीरतापूर्वक विवेचना करते हैं, कभी-कभी रोचक चुटकुले तथा दृष्टांतों के माध्यम से सरल उपदेश करते हैं, जैसे मां एक पुत्र को शुद्ध दूध देती है तथा दूसरे पुत्र को कमजोर पाचन शक्ति होने के कारण पानी मिलाकर दूध पीने को देती है।

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