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श्री रामानुजाचार्य जयंतीः आज पढ़ें इनके जीवन से जुड़ी कुछ खास बातें
Edited By Lata,Updated: 10 May, 2019 12:39 PM
वैष्णव मत की पुन: प्रतिष्ठा करने वालों में रामानुज या रामानुजाचार्य का महत्वपूर्ण स्थान है। रामानुज का जन्म सन 1017 ई. में हुआ था।
ये नहीं देखा तो क्या देखा (VIDEO) वैष्णव मत की पुन: प्रतिष्ठा करने वालों में रामानुज या रामानुजाचार्य का महत्वपूर्ण स्थान है। रामानुज का जन्म सन 1017 ई. में हुआ था। ज्योतिषीय गणना के अनुसार तब सूर्य, कर्क राशि में स्थित था। एक राजपरिवार से सम्बंधित उनके माता-पिता का नाम कान्तिमती और आसुरीकेशव था। रामानुज का बाल्यकाल उनके जन्मस्थान, श्रीपेरुम्बुदुर में ही बीता। 16 वर्ष की आयु में उनका विवाह रक्षकम्बल से हुआ। जब पिता की मृत्यु हुई तो वे कांची चले गए जहां उन्होंने यादव प्रकाश नामक गुरु से वेदाध्ययन प्रारंभ किया। यादव प्रकाश की वेदांत टिकाएं शंकर-भाष्य से प्रेरित थी और मायावादी विचारों का प्रतिपादन करती थी । श्री रामानुजाचार्य की बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि वे अपने गुरु की व्याख्या से भी अधिक विस्तृत व्याख्या कर दिया करते थे। रामानुज के गुरु ने बहुत मनोयोग से शिष्य को शिक्षा दी। वेदांत का इनका ज्ञान थोड़े समय में ही इतना बढ़ गया कि इनके गुरु यादव प्रकाश के लिए इनके तर्कों से पार पाना कठिन हो गया। रामानुज की विद्वत्ता की ख्याति निरंतर बढ़ती गई। इनकी शिष्य-मंडली भी बढ़ने लगी। यहां तक कि इनके गुरु यादव प्रकाश भी इनके शिष्य बन गए। रामानुज द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत ‘विशिष्टाद्वैत’ कहलाता है। श्रीरामानुजाचार्य बड़े ही विद्वान, सदाचारी, धैर्यवान और उदार थे। चरित्रबल और भक्ति में तो ये अद्वितीय थे। श्री रामानुजाचार्य की पूजा पूरे देश में की जाती है। भारत के दक्षिणी, उत्तरी हिस्सों में उनके भक्त यह दिन विशेष उत्सव के रूप में मनाते हैं। उनकी जयंती पर पूरे देश के मंदिरो को सुंदर तरीके सजाया जाता है तथा भजन-कीर्तन और सांस्कृतिक उत्सव भी आयोजित किए जाते हैं। इस दिन उपनिषदों के अभिलेख को सुनना शुभ माना जाता है तथा उनकी मूर्ति पर पुष्प अर्पित करके सुखपूर्ण जीवन की प्रार्थनाएं करते हैं। रामानुजाचार्य आलवंदार यामुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। गुरु की इच्छानुसार रामानुज ने उनसे तीन काम करने का संकल्प लिया था - ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबंधनम की टीका लिखना। उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्यागकर श्रीरंगम के यदिराज संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ली। मैसूर के श्रीरंगम से चलकर रामानुज शालग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। रामानुज ने उस क्षेत्र में 12 वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया। फिर उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए पूरे देश का भ्रमण किया। वैष्णव आचार्यों में प्रमुख रामानुजाचार्य की शिष्य परंपरा में ही रामानंद हुए थे जिनके शिष्य कबीर और सूरदास थे। रामानुज ने वेदांत दर्शन पर आधारित अपना नया दर्शन विशिष्ट द्वैत वेदांत गढ़ा था। जैसे शरीर एवं आत्मा पृथक नहीं हैं तथा आत्म के उद्देश्य की पूर्ति के लिए शरीर कार्य करता है उसी प्रकार ब्रह्म या ईश्वर से पृथक चित् एवं अचित् तत्त्व का कोई अस्तित्व नहीं हैं वे ब्रह्म या ईश्वर का शरीर हैं तथा ब्रह्म या ईश्वर उनकी आत्मा सदृश्य हैं। रामनुजाचार्य के अनुसार भक्ति का अर्थ पूजा-पाठ या कीर्तन-भजन नहीं बल्कि ध्यान करना या ईश्वर की प्रार्थना करना है। रामनुजाचार्य के ब्रह्मसूत्र पर भाष्य 'श्रीभाष्य' एवं 'वेदार्थ संग्रह' मूल ग्रंथ है और वे 1137 ई. में ब्रह्मलीन हो गए।
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