श्रीमद्भागवत गीता- युद्ध नहीं चाहते थे अर्जुन, मगर...

Edited By Jyoti,Updated: 07 Jun, 2020 02:41 PM

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अनुवाद : इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न, हे कृष्ण मैं उससे किसी प्रकार की विजय राज्य या सुख को इच्छा रखता हूं।

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
श्रीमद्भागवत गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 1
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवदगीता

श्लोक-
न च शरयोउनुपश्यामि हत्वा स्वजनगाहवे ।
न काड्ले विजय॑ कृष्ण न च राज्यं सुखानि च॥
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अनुवाद : इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न, हे कृष्ण मैं उससे किसी प्रकार की विजय राज्य या सुख को इच्छा रखता हूं।

तात्पर्य : यह जाने बिना कि मनुष्य का स्वार्थ विष्णु (या कृष्ण) में है सारे बद्धजीव शारीरिक संबंधों के प्रति यह सोच कर आकर्षित होते हैं कि वे ऐसी द
परिस्थितियों में प्रसन्न रहेंगे। ऐसी देहात्मबुद्धि के चलते वे भौतिक सुख के कारणों को भी भूल जाते हैं।
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अर्जुन तो क्षत्रिय का नैतिक धर्म भी भूल गया था। अपने संबंधियों की बात तो छोड़ दें अर्जुन अपने शत्रुओं को भी मारने से विमुख हो रहे हैं। वह सोचते हैं कि स्वजनों को मारने से उन्हें जीवन में सुख नहीं मिल सकेगा अतः वह लड़ने के लिए इच्छुक नहीं हैं। जिस प्रकार की भूख न लगने पर कोई। साक्षात स्पष्ट ज्ञान का भोजनबनाने को तैयार नहीं होता उन्होंने तो वन जाने का निश्चय कर लिया है" जहां वह एकांत में निराशापूर्ण जीवन बिता सकें। किन्तु क्षत्रिय होने के नाते उन्हें अपने जीवन निर्वाह के लिए राज्य चाहिए क्योंकि क्षत्रिय कोई अन्य कार्य नहीं कर सकता किन्तु अर्जुन के पास राज्य कहां है ?"
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उनके लिए तो राज्य प्राप्त करने का एकमात्र अवसर है कि अपने बंधु-बांधवों से लड़ कर अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त करें जिसे वह करना नहीं चाह रहे हैं । इसीलिए वह अपने को जंगल में एकांतवास करके निराशा का एकांत जीवन बिताने के योग्य समझते हैं। 

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