Edited By Jyoti,Updated: 30 Nov, 2020 01:36 PM
अनुवाद एवं तात्पर्य: हे कुन्ती पुत्र! सुख तथा दुख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अंतर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने-जाने के समान है। हे भरतवंशी! वे इंद्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव
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श्रीमद्भागवत गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 1
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवदगीता
श्लोक-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।
अनुवाद एवं तात्पर्य: हे कुन्ती पुत्र! सुख तथा दुख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अंतर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने-जाने के समान है। हे भरतवंशी! वे इंद्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करना सीखे। कत्र्तव्य निर्वाह करते हुए मनुष्य को सुख तथा दुख के क्षणिक आने-जाने को सहन करने का अभ्यास करना चाहिए।
वैदिक आदेशानुसार मनुष्य को माघ (जनवरी-फरवरी) के मास में भी प्रात:काल स्नान करना चाहिए। उस समय अत्यधिक ठंड पड़ती है, किन्तु जो धार्मिक नियमों का पालन करने वाला है वह स्नान करने में तनिक भी झिझकता नहीं।
इसी प्रकार एक गृहिणी भीषण से भीषण गर्मी की ऋतु में (मई-जून के महीनों में) भोजन पकाने में हिचकती नहीं। जलवायु संबंधी असुविधाएं होते हुए भी मनुष्य को अपना कत्र्तव्य निभाना होता है। (क्रमश:)