श्री गीता जयंती: जानें, भगवान ने क्या बताया है अर्जुन को इस दिव्य संदेश में

Edited By Punjab Kesari,Updated: 28 Nov, 2017 09:05 AM

sri geeta jayanti know what god has told arjuna in this divine message

भगवान श्री कृष्ण नारायण हैं और अर्जुन नर ऋषि के अवतार। नर और नारायण सनातन सखा हैं। कौरवों ने सदा पांडवों से अन्याय किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में कौरवों और पांडवों की सेनाएं एक-दूसरे के सम्मुख खड़ी हैं। युद्ध स्थल पर नर...

भगवान श्री कृष्ण नारायण हैं और अर्जुन नर ऋषि के अवतार। नर और नारायण सनातन सखा हैं। कौरवों ने सदा पांडवों से अन्याय किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में कौरवों और पांडवों की सेनाएं एक-दूसरे के सम्मुख खड़ी हैं। युद्ध स्थल पर नर रूपी अर्जुन ने जब युद्ध के अभिलाषी योद्धाओं के रूप में अपने गुरुजनों तथा संपूर्ण बंधुओं को देखा तो वह अत्यंत शोक और करुणा से व्याकुल हो गए। विषाद और किंकत्र्तव्यविमूढ़ की स्थिति में पहुंचे अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण जी से प्रार्थना की, जो परब्रह्म, परमात्मा, जगत के परम आश्रय, अनादि धर्म के रक्षक और अविनाशी सनातन पुरुष हैं। अर्जुन बोले, ‘‘मैं कर्तव्य रूपी धर्म के विषय में मोहित चित्त हूं और मेरे स्वभाव में भी कायरता आ गई है, मेरे लिए जो निश्चित और कल्याणकारी मार्ग हो, वह आप मेरे लिए कहिए, क्योंकि 


‘‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।’’


अर्थात- मैं आपका शिष्य हूं, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए।


मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की मोक्षदा एकादशी का वह दिन, जिस दिन अखिल ब्रह्मांड अधिपति भगवान श्री कृष्ण जी ने मोहग्रस्त अर्जुन को समस्त वेदों, उपनिषदों के सारगर्भित ज्ञान को श्रीमद् भगवद्गीता के ज्ञान के माध्यम से, स्वधर्म पालन में बाधक मोह के नाश के लिए, आत्मा की अमरता, अखंडता एवं व्यापकता तथा कर्मों में कुशलता रूपी समत्वयोग का दिव्य ज्ञान दिया, सांसारिक विषयों में भटकती मन और इन्द्रियों को आश्रय प्रदान करने के लिए श्रीमद् भगवद् गीता का ज्ञान संपूर्ण विश्व के प्राणी मात्र के लिए है। इस दिव्य श्री गीता ज्ञान से अर्जुन का न केवल भय और शोक दूर हुआ, अपितु भगवान के अध्यात्म विषयक वचनों से उसकी अज्ञानता नष्ट हुई और वह संशय रहित होकर अपने कर्तव्य मार्ग की ओर प्रवृत्त हुआ। जिस दिन भगवान ने यह परम पुनीत उपदेश अर्जुन को दिया वह दिन श्री गीता जयंती पर्व के नाम से पुराणों में जगत प्रसिद्ध है। भारतीय वैदिक सनातन पर्व परंपराओं में श्री गीता जयंती पर्व श्री गीता ज्ञान यज्ञ के रूप में आध्यात्मिक जगत का एकमात्र पर्व है, श्री गीता जी में भगवान श्री कृष्ण जी की अविनाशी महिमा, अक्षरस्वरूप, ब्रह्मरूपिणि, भगवान की परम श्रेष्ठ विद्या है। भगवान गोविंद स्वयं अपने मुखारविंद से श्री गीता जी की महिमा बताते हैं।


गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता में चोत्तमं गृहम्।  गीता ज्ञानमुपाश्रित्य त्रींल्लोकान्पाल्याम्यहम्।।


अर्थात- मैं श्री गीता के आश्रय में रहता हूं, श्री गीता मेरा उत्तम घर है, और श्री गीता ज्ञान का आश्रय लेकर मैं तीनों लोकों का पालन करता हूं। भगवान श्री कृष्ण द्वारा श्री गीता जी में प्रतिपादित समत्व योग श्री गीता जी की सबसे बड़ी विलक्षणता है।


‘‘योगस्थ: कुरू कर्माणि संग व्यक्त्वा धनंजय। सिद्धसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।’’


अर्थात- हे धनंजय! तू आसक्ति को त्याग कर व सिद्धि तथा असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व योग कहलाता है। यही बुद्धियोग भी है। इस समत्व योग की तुलना में सकाम कर्म अत्यंत ही निम्र श्रेणी का है, क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यंत दीन हैं। यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है, अर्थात कर्मबन्धन से छूटने का उपाय है।


सभी लोकों के स्वामी भगवान श्री कृष्ण ने समग्र मानव जाति के कल्याण के लिए अर्जुन से यह श्री गीता जी रूपी योग कहा। भगवान पृथ्वी देवी से कहते हैं :
‘‘यत्र गीता विचारश्च पठनं पाठनं श्रुतम्। तत्राहं निश्चितं पृथ्वि निवसामि सदैव हि।।’’


अर्थात- जहां श्री गीता जी का विचार, पठन, पाठन तथा श्रवण होता है, वहां हे पृथ्वी मैं अवश्य निवास करता हूं।


भगवद गीता साक्षात् भगवान विष्णु जी के मुखारविंद से प्रकट हुई है। भगवान कर्म संन्यास की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि कर्म संन्यास कर्मों के  परित्याग का नाम नहीं है अपितु कर्तव्य भाव से कर्म करना है।


भगवद् गीता जी का समदर्शिता का ज्ञान अतुलनीय है, ब्रह्म स्वरूप होने से श्री गीता जी का ज्ञान सबके लिए समान है। श्री गीता जी में भगवान श्री हरि जी ने अपनी प्राप्ति का जो मार्ग बताया वह वेदों के लिए भी अगम्य है। केवल अनन्य भक्ति के द्वारा ही भगवान का तत्व जाना जा सकता है एवं उन्हें प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा अनश्वर है, जन्म-मरण से रहित है, परंतु प्रकृति से उत्पन्न सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर से बांधते हैं। भगवान इस जीवात्मा से अपने शाश्वत संबंध की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि 

 

‘‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।’’


अर्थात- इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूं। यह संपूर्ण जगत मेरी योगमाया का अंश मात्र है। जीव को उसके स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए भगवान ने परम कल्याणप्रद ज्ञान दिया और कहा कि मैं ही सब प्राणियों के हृदय में स्थित हूं और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूं। इसलिए श्री गीता जी सर्ववेदमयी और सर्वशास्त्रमयी हैं।


श्री गीता ज्ञान का दिव्य अमृत व्यास जी की कृपा से इस जगत को प्राप्त हुआ जिसने भक्तिभाव से एकाग्रचित होकर श्री गीता जी का अध्ययन किया है। उसने सर्ववेदों, शास्त्रों तथा पुराणों का अभ्यास किया है, ऐसा माना जाता है। जहां श्री गीता जी प्रतिष्ठित होती है, वहां सर्वतीर्थ निवास करते हैं, श्री गीता जयंती पर्व पर श्री गीता जी का पूजन, पठन, पाठन एवं श्रवण भगवान की पूर्ण कृपा प्राप्त करवाने वाला है।


‘‘यत्र योगेश्वरः: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।’’

जहां योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण हैं, जहां धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है।

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