Edited By Jyoti,Updated: 06 Sep, 2020 06:07 PM
श्री भगवान ने कहा : हे अर्जुन! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे? यह उस मनुष्य के लिए तनिक भी अनुकूल नहीं है जो जीवन के मूल्य को जानता हो। उससे उच्चलोक की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती है।
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श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
गीता श्लोक-
श्री भगवानुवाच कुतस्त्वा कश्मलमिंद विषमे समुपस्थितम।
अनार्यजुष्टस्वग्र्यमकीर्तिकरमर्जुन।
अनुवाद : श्री भगवान ने कहा : हे अर्जुन! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे? यह उस मनुष्य के लिए तनिक भी अनुकूल नहीं है जो जीवन के मूल्य को जानता हो। उससे उच्चलोक की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती है।
तात्पर्य : श्री कृष्ण ही परम ईश्वर भगवान हैं, इसीलिए श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण गीता में भगवान ही कहा गया है। भगवान परमसत्य की पराकाष्ठा हैं। परमसत्य का बोध ज्ञान की तीन अवस्थाओं में होता है-ब्रह्मा या निर्विशेष सर्वव्यापी आत्मा, परमात्मा या भगवान का अंतर्यामी रूप जो समस्त जीवों के हृदय में है तथा भगवान या श्रीभगवान कृष्ण।
संस्कृत शब्द भगवान की व्याख्या व्यासदेव के पिता पराशर मुनि ने की है। समस्त धन, शक्ति, यश, सौंदर्य, ज्ञान तथा त्याग से युक्त परम पुरुष भगवान कहलाता है। ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो अत्यंत धनी हैं, अत्यंत शक्तिमान हैं, अत्यंत सुंदर हैं और अत्यंत विख्यात, विद्वान तथा विरक्त भी हैं किन्तु कोई साधिकार यह नहीं कह सकता कि उसके पास सारा धन, शक्ति आदि है।
एकमात्र कृष्ण ही ऐसा दावा कर सकते हैं क्योंकि वह भगवान हैं। ब्रह्म , शिव या नारायण सहित कोई भी जीव कृष्ण के समान पूर्ण ऐश्वर्यवान नहीं है। अत: ब्रह्मासंहिता में स्वयं ब्रह्मा जी का निर्णय है कि श्री कृष्ण स्वयं भगवान हैं। न तो कोई उनके तुल्य है न उनसे बढ़कर है। वे आदि स्वामी या भगवान हैं, गोविंद रूप में जाने जाते हैं और समस्त कारणों के परम कारण हैं।