श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञान: अर्जुन तो निमित्त मात्र हैं

Edited By Jyoti,Updated: 14 Jun, 2020 05:25 PM

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तात्पर्य: यहां पर जाति तथा कुटुम्बियों के प्रति अर्जुन का प्रगाढ़ स्नेह आंशिक रूप से इन सबके प्रति उसकी स्वाभाविक करुणा के कारण है।

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा।
येषामर्थे काङ्गितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च।।32।। 
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।

आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा:।।33।।
मातुला:श्वशुरा: पौत्रा: श्याला: सम्बन्धिनस्तथा।
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एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।।34।।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न: का प्रीति: स्याज्जानार्दन। 35।। 
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तात्पर्य: यहां पर जाति तथा कुटुम्बियों के प्रति अर्जुन का प्रगाढ़ स्नेह आंशिक रूप से इन सबके प्रति उसकी स्वाभाविक करुणा के कारण है। अत: वह युद्ध करने के लिए तैयार नहीं है। हर व्यक्ति अपने वैभव का प्रदर्शन अपने मित्रों तथा परिजनों के समक्ष करना चाहता है किन्तु अर्जुन को भय है कि उसके सारे मित्र तथा परिजन मारे जाएंगे और वह विजय के पश्चात उनके साथ अपने वैभव का उपभोग नहीं कर सकेगा। 

भौतिक जीवन का यह सामान्य लेखा-जोखा है किन्तु आध्यात्मिक जीवन सर्वथा भिन्न होता है। चूंकि भक्त भगवान की इच्छाओं की पूूर्ति करना चाहता है। अत: भगवद् इच्छा होने पर वह भगवान की सेवा के लिए सारे ऐश्वर्य स्वीकार कर सकता है किन्तु यदि भगवद् इच्छा न हो तो वह एक छदाम भी ग्रहण नहीं करता। अर्जुन संबंधियों को मारना नहीं चाहता था और यदि उनको मारने की आवश्यकता हो तो अर्जुन की इच्छा थी कि कृष्ण स्वयं उनका वध करें। इस समय उसे यह पता नहीं है कि कृष्ण उन सभी को युद्धभूमि में आने के पूर्व ही मार चुके हैं और अब उसे निमित्त मात्र बनना है। 
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