Srimad Bhagavad: ‘मृत्यु’ से डरने वाले अवश्य पढ़ें ये कथा

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 07 Apr, 2022 12:54 PM

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राजा परीक्षित को भगवत सुनाते हुए जब शुकदेव को 6 दिन बीत गए और सर्प के काटने से मृत्यु होने में एक दिन शेष रह गया तब भी राजा का शोक और मृत्यु भय दूर न हुआ। कातर भाव से मरने की घड़ी निकट आती

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Srimad Bhagavad Gita: राजा परीक्षित को भगवत सुनाते हुए जब शुकदेव को 6 दिन बीत गए और सर्प के काटने से मृत्यु होने में एक दिन शेष रह गया तब भी राजा का शोक और मृत्यु भय दूर न हुआ। कातर भाव से मरने की घड़ी निकट आती देखकर राजा क्षुब्ध हो रहा था। शुकदेव जी ने राजा को एक कथा सुनाई- राजन, बहुत समय पहले की बात है। एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया। संयोगवश वह रास्ता भूल कर बड़े घने जंगल में जा निकला, रात्रि हो गई। वर्षा पड़ने लगी। सिंह-व्याघ्र बोलने लगे। राजा बहुत डरा और किसी प्रकार रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान खोजने लगा। 

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कुछ दूर उसे एक जलता दीपक दिखाई दिया। वहां पहुंच कर उसने एक गंदे बीमार बहेलिए की झोंपड़ी देखी। वह चल-फिर नहीं सकता था इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था। 

अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था। बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंध युक्त वह कोठरी थी। उसे देख कर राजा पहले तो ठिठका पर और कोई आश्रय न देखकर विवशतावश उस बहेलिए से अपनी कोठरी में रात भर ठहर जाने देने के लिए प्रार्थना की।

बहेलिए ने कहा, ‘‘आश्रय हेतु कुछ राहगीर कभी-कभी यहां आ भटकते हैं और मैं उन्हें ठहरा लेता हूं लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं। इस झोंपड़ी की गंध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर उसे छोडऩा नहीं चाहते। इसी में रहने की कोशिश करते हैं और अपना कब्जा जमा लेतेे हैं।’’

‘‘ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूं इसलिए अब किसी को नहीं ठहरने देता। आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा।’’ 

राजा ने प्रतिज्ञा और कसम खाई कि वह दूसरे दिन इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा। उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहां तो वह संयोगवश ही आया है। सिर्फ एक रात ही काटनी है।

बहेलिए ने अनमने मन से राजा को झोंपड़ी के कोने में ठहर जाने दिया पर दूसरे दिन प्रात:काल ही बिना झंझट किए झोंपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दोहरा दिया। राजा एक कोने में पड़ा रहा। रात भर सोया। नींद में झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सवेरे उठा, तो उसे वही सब परमप्रिय लगने लगा। 

राज-काज की बात भूल गया और वहीं निवास करने की बात सोचने लगा। 

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प्रात:काल जब राजा और ठहरने के लिए आग्रह करने लगा तो बहेलिए ने लाल-पीली आंखें निकालीं और झंझट शुरू हो गया। झंझट बढ़ा, उपद्रव  तथा कलह का रूप धारण कर गया। राजा मरने-मारने पर उतारू हो गया। उसे छोड़ने में भारी कष्ट और शोक अनुभव करने लगा।

शुकदेव जी ने पूछा, ‘‘परीक्षित! बताओ, उस राजा के लिए क्या यह झंझट उचित था?’’

परीक्षित ने कहा, ‘‘भगवन! वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइए। वह तो बड़ा मूर्ख मालूम पड़ता है कि ऐसी गंदी कोठरी में अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर, राज-काज छोड़कर, नितय अवधि से भी अधिक रहना चाहता था। उसकी मूर्खता पर तो मुझे भी क्रोध आता है।’’

शुकदेव जी ने कहा, ‘‘परीक्षित! वह और कोई नहीं, तुम स्वयं हो। इस मल-मूत्र की कोठरी रूपी देह में जितने समय तुम्हारी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि पूरी हो गई। अब उस लोक को जाना है, जहां के आप थे। इस पर भी आप झंझट फैला रहे हैं। मरना नहीं चाहते एवं मरने का शोक कर रहे हो। क्या यह उचित है? राजा ने कथा के मर्म को स्वयं पर आरोपित किया एवं मृत्यु भय को भुलाते हुए मानसिक रूप से निर्वाण की अपनी तैयारी कर ली। अंतिम दिन का कथा श्रवण उन्होंने पूरे मन से किया।

वस्तुत: मरने के लिए हर मानव को हर घड़ी तैयार रहना चाहिए। यह शरीर तो कभी न कभी नष्ट होना ही है लेकिन आत्मा कभी नहीं मरती। उसी को ऊंचा उठाने के प्रयास जीवनपर्यंत किए जाते रहें तो भावी जन्म सार्थक किया जा सकता है।    

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