Edited By Niyati Bhandari,Updated: 07 Oct, 2020 06:59 AM
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 1, साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 1, साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय:। पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदर:।।
Srimad Bhagavad Gita- अनुवाद : भगवान कृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया, अर्जुन ने देवदत्त शंख तथा अतिभोजी एवं अतिमानवीय कार्य करने वाले भीम ने पौण्ड्र नामक भयंकर शंख बजाया।
तात्पर्य : इस श्लोक में भगवान कृष्ण को ऋषिकेश कहा गया है क्योंकि वही समस्त इंद्रियों के स्वामी हैं। सारे जीव उनके भिन्नांश हैं अत: जीवों की इंद्रियां भी उनकी इंद्रियों के अंश हैं। भगवान समस्त जीवों के हृदयों में स्थित होकर उनकी इंद्रियों का निर्देशन करते हैं किन्तु वे इस तरह निर्देशन करते हैं कि जीव उनकी शरण ग्रहण कर ले और विशुद्ध भक्त की इंद्रियों का तो वह प्रत्यक्ष निर्देश करते हैं।
यहां कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में भगवान कृष्ण अर्जुन की दिव्य इंद्रियों का निर्देशन करते हैं इसीलिए उनको ऋषिकेश कहा गया है। भगवान के विविध कार्यों के अनुसार उनके भिन्न-भिन्न नाम हैं। उदाहरणार्थ, इनका एक नाम मधुसूदन है क्योंकि उन्होंने मधु नाम के असुर को मारा था, गौवों तथा इंद्रियों को आनंद देने के कारण गोविंद कहलाते हैं, वसुदेव के पुत्र होने के कारण इनका नाम वासुदेव है, देवकी को माता रूप में स्वीकार करने के कारण इनका नाम देवकीनंदन है, वृंदावन में यशोदा के साथ बाल-लीलाएं करने के कारण ये यशोदानंदन हैं, अपने मित्र अर्जुन का सारथी बनने के कारण पार्थसारथी हैं। इसी प्रकार उनका एक नाम ऋषिकेश है क्योंकि उन्होंने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन का निर्देशन किया।
इस श्लोक में अर्जुन को धनञ्जय कहा गया है क्योंकि जब इनके बड़े भाई को विभिन्न यज्ञ सम्पन्न करने के लिए धन की आवश्यकता हुई थी तो उसे प्राप्त करने में इन्होंने सहायता की थी। इसी प्रकार भीम वृकोदर कहलाते हैं क्योंकि जैसे वे अधिक खाते हैं उसी प्रकार वे अतिमानवीय कार्य करने वाले हैं, जैसे हिडिम्बासुर का वध। अत: पांडवों के पक्ष में श्री कृष्ण इत्यादि विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विशेष प्रकार के शंखों का बजाया जाना युद्ध करने वाले सैनिकों के लिए अत्यंत प्रेरणाप्रद था। विपक्ष में ऐसा कुछ न था, न तो परम निदेशक भगवान कृष्ण थे, न ही भाग्य की देवी (श्री) थीं। अत: युद्ध में उनकी पराजय पूर्व निश्चित थी- शंखों की ध्वनि मानो यही संदेश दे रही थी।
(क्रमश:)