Edited By Niyati Bhandari,Updated: 05 Apr, 2021 11:44 AM
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार: स्वामी प्रभुपाद
युद्ध का ‘लाभ’
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्। सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।32।।
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श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार: स्वामी प्रभुपाद
युद्ध का ‘लाभ’
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्। सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।32।।
अनुवाद एवं तात्पर्य : वे क्षत्रिय सुखी हैं जिन्हें ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं जिनसे उनके लिए स्वर्गलोक के द्वार खुल जाते हैं।
अर्जुन की इस प्रवृत्ति की श्री कृष्ण भर्त्सना करते हैं जब वह कहता है कि उसे इस युद्ध में कुछ भी लाभ नहीं दिख रहा। इसके बाद नरक में शाश्वत वास करना होगा। अर्जुन द्वारा ऐसे वक्तव्य केवल अज्ञान जन्य थे। वह अपने स्वधर्म के आचरण में अहिंसक बनना चाह रहा था किन्तु एक क्षत्रिय के लिए युद्धभूमि में स्थित होकर इस प्रकार अहिंसक बनना मूर्खों का दर्शन है।
पराशर-स्मृति में व्यासदेव के पिता पराशर ने कहा है कि क्षत्रिय का धर्म है कि वह सभी क्लेशों से नागरिकों की रक्षा करे इसीलिए उसे शांति तथा व्यवस्था बनाए रखने के लिए हिंसा करनी पड़ती है। अत: उसे शत्रु राजाओं के सैनिकों को जीत कर धर्मपूर्वक संसार पर राज्य करना चाहिए।
यदि सभी पक्षों पर विचार करें तो अर्जुन के युद्ध से विमुख होने का कोई कारण नहीं था। यदि वह शत्रुओं को जीतता है तो राज्यभोग करेगा और यदि वह युद्धभूमि में मरता है तो स्वर्ग को जाएगा। दोनों ही तरह युद्ध करने से उसे लाभ होगा।
(क्रमश:)