Edited By Niyati Bhandari,Updated: 02 Sep, 2021 10:48 AM
इस अध्याय में अर्जुन ज्ञान मार्ग और कर्तव्य मार्ग को अलग-अलग समझते हुए मोहित चित्त हुए भगवान से निश्चित तथा कल्याणकारी मार्ग बताने की प्रार्थना करते हैं तथा ज्ञान की महिमा के विषय
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तृतीय अध्याय - ‘कर्म योग’
Srimad Bhagavad Gita: इस अध्याय में अर्जुन ज्ञान मार्ग और कर्तव्य मार्ग को अलग-अलग समझते हुए मोहित चित्त हुए भगवान से निश्चित तथा कल्याणकारी मार्ग बताने की प्रार्थना करते हैं तथा ज्ञान की महिमा के विषय में सुन कर अर्जुन कहते हैं, ‘‘हे प्रभु! कर्मों की अपेक्षा यदि ज्ञान श्रेष्ठ है तो आप मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं, अर्थात युद्ध करने के लिए क्यों कहते हैं?’’
तब भगवान श्री हरि बोले, ‘‘कोई भी पुरुष किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि कर्म न करने से शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा इसलिए शास्त्र विधि से नियत किए हुए स्वधर्म रूप कर्म को करना, कर्म न करने की अपेक्षा श्रेष्ठ है। बंधन के भय से कर्मों का त्याग करके मनुष्य पाप को प्राप्त होता है।’’
भगवान बोले, ‘‘मुझे तीनों लोकों में कोई भी वस्तु अप्राप्त नहीं है फिर भी मैं स्वयं कर्म करता हूं क्योंकि मैं यदि कर्म न करूं तो सभी मनुष्य मेरे बर्ताव के अनुसार व्यवहार करने लग जाएं और मैं अपनी प्रजा का हनन करने वाला बनूं। वास्तव में सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए हुए हैं परंतु अहंकार से मोहित हुए अंत:करण वाला पुरुष मान लेता है कि वही कर्ता है इसलिए हे अर्जुन, तू कर्मों को मुझ में समर्पण करके आशा, ममता तथा संताप रहित होकर युद्ध कर। इससे तू सम्पूर्ण कर्मों से अर्थात कर्म बंधन से छूट जाएगा। आसक्ति से रहित होकर कर्तव्य कर्म करते हुए मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।’’
‘‘हे अर्जुन! इस स्वधर्म रूप कल्याण मार्ग में इंद्रियों में छुपे राग और द्वेष, विघ्न पैदा करने वाले महान शत्रु हैं। जैसे धुआं अग्रि को तथा जेर गर्भ को ढंक लेता है, वैसे ही काम रूपी शत्रु ज्ञान को ढंक लेता है। इसलिए तू अपनी आत्मा को अत्यंत श्रेष्ठ जान कर बुद्धि द्वारा मन को वश में करके दुर्जय काम रूपी शत्रु को मार डाल क्योंकि मन और बुद्धि इसके वास स्थान कहे गए हैं।’’
इस अध्याय में भगवान ने कर्म के महत्व के विषय में बताया है, इसलिए इसका नाम ‘कर्म योग’ रखा गया।