Edited By Niyati Bhandari,Updated: 05 Oct, 2021 10:01 AM
भगवान की ईश्वरीय योग माया के कारण जीव भगवान के अविनाशी भाव को नहीं समझ पाता क्योंकि भगवान की अलौकिक त्रिगुणमयी माया का पार पाना अत्यंत कठिन है। जो भक्त केवल निरंतर
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सातवां अध्याय : ‘ज्ञान-विज्ञान योग’
Srimad Bhagavad Gita: भगवान की ईश्वरीय योग माया के कारण जीव भगवान के अविनाशी भाव को नहीं समझ पाता क्योंकि भगवान की अलौकिक त्रिगुणमयी माया का पार पाना अत्यंत कठिन है। जो भक्त केवल निरंतर भगवान का स्मरण करते हैं और भगवान की शरण होकर बुढ़ापे और मरण से छूटने का प्रयत्न करते हैं वही वास्तव में ब्रह्म का ज्ञान रखने, सम्पूर्ण अध्यात्म को जानने तथा सम्पूर्ण कर्मों को करने वाले हैं। भगवान की प्रकृति दो भागों में विभक्त है जड़ और चेतन।
जड़ प्रकृति में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार हैं तथा चेतन भगवान की जीवरूपा प्रकृति है। सम्पूर्ण भूत प्राणी इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होते हैं और भगवान श्री कृष्ण इस संपूर्ण जगत के मूल कारण हैं। उनके अतिरिक्त दूसरा अन्य कोई कारण नहीं है। इस प्रकार जब जीव को यह ज्ञान हो जाए कि सब कुछ भगवान वासुदेव ही हैं। वह भक्त अत्यंत दुर्लभ है।
अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के भक्तों में ज्ञानी भगवान को अत्यंत प्रिय है क्योंकि वह अपने आप को परात्पर ब्रह्म, भगवान से भिन्न नहीं मानता लेकिन जो मनुष्य कामना के वशीभूत होकर अन्य देवताओं का पूजन करते हैं वे भगवान द्वारा विधान किए गए फल को तो देवताओं से प्राप्त कर लेते हैं परंतु भगवान को न प्राप्त होकर केवल देवताओं को ही प्राप्त करते हैं क्योंकि भगवान की अति अद्भुत त्रिगुणमयी माया के 3 गुणों से समस्त जगत प्राणी समुदाय मोहित है।
भगवान कहते हैं जो सबकी आत्मा के रूप में मुझ अधियज्ञ को राग, द्वेष, जनित द्वंद्व रूप मोह से मुक्त दृढ़ निश्चयी भक्त सब प्रकार से भजते हैं वे मुक्त चित्त वाले पुरुष अंतकाल में मुझे प्राप्त कर लेते हैं तथा मेरी इस दुस्तर माया से केवल वे ही तर पाते हैं जो निरंतर मेरा भजन करते हैं।
इस अध्याय में भगवान की सब प्रकार से शरण प्राप्त करने वाला भक्त ब्रह्मज्ञानी, अध्यात्म ज्ञाता तथा सम्पूर्ण कर्मों को जानने वाला होने से ज्ञान-विज्ञान से युक्त एवं तृप्त है। भगवान के इस जगत के परम कारण होने से इस अध्याय का नामकरण ‘ज्ञान-विज्ञान योग’ किया गया है।