Srimad Bhagavad Gita: सुख-दुख में संतुलन ही ‘परमानंद’ है

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 04 May, 2022 02:13 PM

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गीता (2.14) के आरंभ में ही श्रीकृष्ण कहते हैं कि इन्द्रियों का बाह्य विषयों से मिलन सुख और दुख का कारण बनता है। वह अर्जुन से कहते हैं कि सुख-दुख को सहन करना सीखो, क्योंकि वे क्षणिक हैं। आज की

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Srimad Bhagavad Gita: गीता (2.14) के आरंभ में ही श्रीकृष्ण कहते हैं कि इन्द्रियों का बाह्य विषयों से मिलन सुख और दुख का कारण बनता है। वह अर्जुन से कहते हैं कि सुख-दुख को सहन करना सीखो, क्योंकि वे क्षणिक हैं। आज की दुनिया में इसे ‘यह भी बीत जाएगा’ के रूप में व्यक्त किया जाता है। प्रयास करें तो हम इन भावनाओं को समान रूप से स्वीकार कर सकते हैं। पांच इंद्रियां हैं-दृष्टि, श्रवण, गंध, स्वाद और स्पर्श। उनके संबंधित भौतिक अंग-आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा। 

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हालांकि, इन इंद्रियों की बहुत-सी सीमाएं हैं। उदाहरण के लिए, आंख केवल प्रकाश की एक विशेष आवृत्ति को देख कर सकती है जिसे हम ‘दृश्य प्रकाश’ कहते हैं। दूसरे, यह प्रति सैकेंड 15 से अधिक छवियों को पहचान नहीं सकती। यही वीडियो और फिल्मों के निर्माण का आधार है जो हमें इन्हें देखने का आनंद देता है। तीसरा, किसी वस्तु को देखने में सक्षम होने के लिए उसे न्यूनतम मात्रा में प्रकाश की आवश्यकता होती है। 

इंद्रियों की ये सीमाएं, ‘सत्’ (स्थायी) और ‘असत्’ (अस्थायी) के बीच अंतर करने की हमारी क्षमता में बाधा डालती हैं और हम रस्सी को भी कम रोशनी में सांप समझ सकते हैं।

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यहां तक कि मस्तिष्क में इन इंद्रियों के संवेदी हिस्से भी सीमाओं के चलते विकलांग हैं। दूसरे, विशेष रूप से बचपन के दौरान हुए अनुभव भी उन्हें प्रभावित करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हम जो देखना चाहते हैं, वही देखते हैं।

‘सत्’ को देखने में असमर्थता और ‘असत्’ की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति का परिणाम दुख होता है। कृष्ण कहते हैं (2.15) कि जब हम सुख और दर्द के हमले के दौरान संतुलन बनाए रखते हैं, तो हम अमृत (मोक्ष) के पात्र होते हैं, जो मुक्ति है।

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