Edited By Jyoti,Updated: 07 Jun, 2022 06:18 PM
अनुवाद : जिस प्रकार अज्ञानी जन फल की आसक्ति से कार्य करते हैं, उसी तरह विद्वान जनों को चाहिए कि वे लोगों को उचित पथ पर ले जाने के लिए अनासक्त रहकर कार्य करें।
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श्रीमद्भागवत गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 1
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवदगीता
श्रीमद्भागवत गीता श्लोक-
सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोक संग्रहम्।।
अनुवाद : जिस प्रकार अज्ञानी जन फल की आसक्ति से कार्य करते हैं, उसी तरह विद्वान जनों को चाहिए कि वे लोगों को उचित पथ पर ले जाने के लिए अनासक्त रहकर कार्य करें।
तात्पर्य : एक कृष्णभावना भावित मनुष्य तथा एक कृष्णभावना हीन व्यक्ति में केवल इच्छाओं का भेद होता है। कृष्णभावना भावित व्यक्ति कभी ऐसा कोई कार्य नहीं करता जो कृष्णभावनामृत के विकास में सहायक न हो। यहां तक कि वह उस अज्ञानी पुरुष की तरह कर्म कर सकता है जो भौतिक कार्यों में अत्यधिक आसक्त रहता है। किन्तु इनमें से एक ऐसा कार्य अपनी इंद्रिय तृप्ति के लिए करता है जबकि दूसरा कृष्ण की तुष्टि के लिए। अत: कृष्णभावना भाक्ति व्यक्ति को चाहिए कि वह लोगों को यह प्रदर्शित करे कि किस तरह कार्य किया जाता है और किस तरह कर्मफलों को कृष्णभावनामृत कार्य में नियोजित किया जाता है।
श्रीमद्भागवत गीता श्लोक-
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:।
अनुवाद : यदि मैं नियतकर्म न करूं तो ये सारे लोग नष्ट हो जाएं। तब मैं अवांछित जनसमुदाय (वर्णसंकर) को उत्पन्न करने का कारण हो जाऊंगा और सम्पूर्ण प्राणियों की शांति का विनाशक बनूंगा।
तात्पर्य : वर्णसंकर अवांछित जनसमुदाय है जो सामान्य समाज की शांति को भंग करता है। इस सामाजिक अशांति को रोकने के लिए अनेक विधि-विधान हैं जिनके द्वारा स्वत: ही जनता आध्यात्मिक प्रगति के लिए शांत तथा सुव्यवस्थित हो जाती है। जब भगवान कृष्ण अवतरित होते हैं तो स्वाभाविक है कि वह ऐसे महत्वपूर्ण कार्यों की प्रतिष्ठा तथा अनिवार्यता बनाए रखने के लिए इन विधि-विधानों के अनुसार आचरण करते हैं।
भगवान समस्त जीवों के पिता हैं और यदि वे जीव पथभ्रष्ट हो जाएं तो अप्रत्यक्ष रूप से यह उत्तरदायित्व उन्हीं का है। अत: जब भी विधि-विधानों का अनादर होता है तो भगवान स्वयं समाज को सुधारने के लिए अवतरित होते हैं किन्तु हमें ध्यान देना होगा कि हमें भगवान के पदचिन्हों का अनुसरण करना है तो भी हम उनका अनुकरण नहीं कर सकते।
अनुसरण और अनुकरण एक से नहीं होते। हम गोवर्धन पर्वत उठाकर भगवान का अनुकरण नहीं कर सकते जैसा कि भगवान ने अपने बाल्यकाल में किया था। ऐसा कर पाना किसी मनुष्य के लिए संभव नहीं। हमें उनके उपदेशों का पालन करना चाहिए किन्तु किसी भी समय हमें उनका अनुकरण नहीं करना है। उपदेश हमारे लिए अच्छे हैं और कोई भी बुद्धिमान पुरुष बताई विधि से उनको कार्यान्वित करेगा। शिव जी ने सागर तक के विष का पान कर लिया किन्तु यदि कोई सामान्य व्यक्ति विष की एक बूंद भी पीने का यत्न करेगा तो मर जाएगा। अत: सबसे अच्छा यही होगा कि लोग शक्तिमान का अनुकरण न करके केवल उनके उपदेशों का पालन करें।