Edited By Jyoti,Updated: 11 Jan, 2022 05:38 PM
अनुवाद एवं तात्पर्य : न तो कर्म से विमुख होकर कोई भी मनुष्य कर्मफल से छुटकारा पा सकता है और न ही केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। भौतिकतावादी मनुष्यों के हृदयों को निर्मल करने के लिए
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
‘भक्ति’ के लिए संन्यास जरूरी नहीं
न कर्मणामनारम्भात्रैष्कम्र्यं पुरुषोऽश्रुते।
न च संन्यसनादेव सिङ्क्षद्ध समधिगच्छति।।
अनुवाद एवं तात्पर्य : न तो कर्म से विमुख होकर कोई भी मनुष्य कर्मफल से छुटकारा पा सकता है और न ही केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। भौतिकतावादी मनुष्यों के हृदयों को निर्मल करने के लिए जिन कर्मों का विधान किया गया है उनके द्वारा शुद्ध हुआ मनुष्य ही संन्यास ग्रहण कर सकता है। शुद्धि के बिना अनायास संन्यास ग्रहण करने से सफलता नहीं मिल पाती।
ज्ञान योगियों के अनुसार संन्यास ग्रहण करने अथवा सकाम कर्म से विरत होने से ही मनुष्य नारायण के समान हो जाता है परन्तु भगवान श्री कृष्ण इस मत का अनुमोदन नहीं करते। उनके अनुसार यह एक शाश्वत सत्य है कि किसी भी व्यक्ति के हृदय की शुद्धि के बिना लिया गया संन्यास सामाजिक व्यवस्था में बाधा ही उत्पन्न करता है।
दूसरी ओर यदि कोई व्यक्ति नियत कर्मों को न करके भी भगवान की दिव्य सेवा करता है तो वह उस मार्ग में जो कुछ भी उन्नति करता है, उसे भगवान द्वारा पूर्णत: स्वीकार कर लिया जाता है (बुद्धियोग)। श्री कृष्ण कहते हैं कि ऐसे सिद्धांत का थोड़ा-सा पालन भी जीवन की महान से महान कठिनाइयों को सरलता सहित पार करने में मनुष्य हेतु सहायक होता है। (क्रमश:)