Edited By Jyoti,Updated: 13 May, 2022 05:28 PM
नुवाद तथा तात्पर्य : श्री भगवान ने कहा, ‘‘हे पार्थ! जब मनुष्य मनोरथ से उत्पन्न होने वाली इंद्रिय तृप्ति की समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है और जब इस तरह से विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में संतोष प्राप्त करता है तो वह विशुद्ध
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्या याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
अनुवाद तथा तात्पर्य : श्री भगवान ने कहा, ‘‘हे पार्थ! जब मनुष्य मनोरथ से उत्पन्न होने वाली इंद्रिय तृप्ति की समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है और जब इस तरह से विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में संतोष प्राप्त करता है तो वह विशुद्ध दिव्य चेतना को प्राप्त कहा जाता है।
श्रीमद् भागवत में पुष्टि हुई है कि जो मनुष्य पूर्णतया कृष्णभावना भावित या भगवद् भक्त होता है उसमें महॢषयों के समस्त सद्गुण पाए जाते हैं किन्तु जो व्यक्ति अध्यात्म में स्थित नहीं होता उसमें एक भी योग्यता नहीं होती क्योंकि वह मनोरथ पर ही आश्रित रहता है।
फलत: यहां यह ठीक ही कहा गया है कि व्यक्ति को मनोरथ द्वारा कल्पित सारी विषय वासनाओं को त्यागना होता है। कृत्रिम साधन से इनको रोक पाना स भव नहीं किन्तु यदि कोई कृष्णभावनामृत में लगा हो तो सारी विषय वासनाएं स्वत: बिना किसी प्रयास के दब जाती हैं।
अत: मनुष्य को बिना किसी झिझक के कृष्णभावनामृत में लगना होगा क्योंकि यह भक्ति उसे दिव्य चेतना प्राप्त करने में सहायक होगी। अत्यधिक उन्नत जीवात्मा (महात्मा) अपने आपको परमेश्वर का शाश्वत दास मानकर आत्मतुष्ट रहता है।
ऐसे आध्यात्मिक पुरुष के पास भौतिकता से उत्पन्न एक भी विषय वासना फटक नहीं पाती। वह अपने को निरंतर भगवान का सेवक मानते हुए सहज रूप में सदैव प्रसन्न रहता है। (क्रमश:)