जीओ गीता के संग, जीवन में रहेगा आनंद

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 21 Apr, 2018 12:26 PM

srimad bhagwad gita updesh

सप्ताह में सात दिन हैं और यहां गीता जी के सात ही श्लोक आदर्श गृहस्थ जीवन के लिए  गए हैं। यद्यपि गीता जी का प्रत्येक श्लोक इस विषय की महत्वपूर्ण प्रेरणा है, तथापि यहां वर्णित इन सात श्लोकों को अपना आदर्श बनाएं, बार-बार पढ़ें, समझें और अपना निरीक्षण...

सप्ताह में सात दिन हैं और यहां गीता जी के सात ही श्लोक आदर्श गृहस्थ जीवन के लिए  गए हैं। यद्यपि गीता जी का प्रत्येक श्लोक इस विषय की महत्वपूर्ण प्रेरणा है, तथापि यहां वर्णित इन सात श्लोकों को अपना आदर्श बनाएं, बार-बार पढ़ें, समझें और अपना निरीक्षण करते रहें।

 

योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। —गीता 2/48

 

हे अर्जुन! आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि-असिद्धि अर्थात सफलता और असफलता में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर-मन की समता ही योग कही जाती है। आदर्श गृहस्थ जीवन की बहुत सशक्त प्रेरणा है, भगवत गीता का यह श्लोक! कर्म तो करने हैं, करने भी चाहिए। कर्म किए बिना शरीर यात्रा भी संभव नहीं (गीता 3/8) अपने निश्चित निर्धारित कर्म के प्रति प्रमाद, आलस्य, कामचोरी, लापरवाही किसी भी तरह से नहीं होनी चाहिए, गीता को ऐसी स्थिति बिल्कुल स्वीकार नहीं।

 

किसी मंदिर के निर्माण कार्य में तीन मजदूर पत्थर तोड़ने का काम कर रहे थे। एक संत आए, उन्होंने एक मजदूर से पूछा- भाई, क्या कर रहे हो? ‘‘दिखाई नहीं दे रहा। पत्थर तोड़ रहा हूं और क्या कर रहा हूं।’’ आवेश-आक्रोश में उसने उत्तर दिया। 

 

संत दूसरे मजदूर के पास गए और वही प्रश्न किया। उदासीनता के स्वर में उसने कहा, ‘‘रोजी-रोटी के लिए काम कर रहा हूं।’’ 

 

तीसरे मजदूर से संत ने वही बात पूछी। अत्यंत आनंद से उसने उत्तर दिया, ‘‘भगवान की कृपा का आनंद ले रहा हूं। उन्होंने जो सेवा दी है, उसे खुशी-खुशी कर रहा हूं।’’

 

यह है योग के भाव में सेवा कर्म करना। अपने दायित्वों को हंसकर प्यार एवं सद्भाव से प्रभु की सेवा मान कर पूरा करो। व्यर्थ आवेश, आक्रोश में नहीं। विचार करो- कर्म वही है, उसे अपना तनाव, परिवार, दुर्भाव बनाकर करना है अथवा तीसरे मजदूर की भांति अपनी प्रसन्नता एवं पारिवारिक सद्भावना का माध्यम बनाना है।

 

अनुकूलता को भगवान की कृपा मान कर उसका उपयोग-प्रयोग करो। अनुकूलता में अहंकार या प्राप्त पदार्थ परिस्थिति में आसक्ति नहीं, भगवान की कृपा मानो। यदि कहीं कुछ प्रतिकूलता है तो उसमें निराशा नहीं। भगवान की इच्छा समझकर मन को सम और शांत रखने का प्रयास करो। 

 

अनुकूलता है तो ‘श्रीकृष्ण कृपा’, कुछ प्रतिकूल है तो ‘श्रीकृष्ण इच्छा।’ अनुकूलता और प्रतिकूलता अथवा सफलता व असफलता की दोनों स्थितियां प्राय: मन का संतुलन बिगाड़ती हैं। हर स्थिति में मन शांत, सम और संतुलित रहे। गीता के अनुसार यही समता की स्थिति योग है, गृहस्थ जीवन में भी आप योग की यह अवस्था बना सकते हैं, तनावमुक्त जीवन जी सकते हैं, ऐसा विश्वास रखो। इसीलिए आओ-जीओ गीता के संग में, जीओ जीवन आनंद में।

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