Edited By ,Updated: 12 May, 2017 12:57 PM
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
अध्याय छ: ध्यानयोग
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनंदन।। 43।।
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
अध्याय छ: ध्यानयोग
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनंदन।। 43।।
शब्दार्थ : तत्र—वहां; तम्—उस; बुद्धि-संयोगम्—चेतना की जागृति को; लभते—प्राप्त होता है; पौर्व-देहिकम्—पूर्व देह से; यतते—प्रयास करता है; च—भी; तत:—तत्पश्चात; भूय:—पुन:; संसिद्धौ—सिद्धि के लिए; कुरुनंदन—हे कुरुपुत्र।;
अनुवाद: हे कुरुनंदन! ऐसा जन्म पाकर वह अपने पूर्वजन्म की दैवी चेतना को पुन: प्राप्त करता है और पूर्ण सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से वह आगे उन्नति करने का प्रयास करता है।
तात्पर्य : राजा भरत जिन्हें तीसरे जन्म में उत्तम ब्राह्मण कुल में जन्म मिला, पूर्व दिव्यचेतना की पुन:प्राप्ति के लिए उत्तम जन्म के उदाहरणस्वरूप हैं। भरत विश्व भर के सम्राट थे और तभी से यह लोक देवताओं के बीच भारतवर्ष के नाम से विख्यात हैं।
पहले यह इलावृतवर्ष के नाम से ज्ञात था। भरत ने अल्पायु में ही आध्यात्मिक सिद्धि के लिए संन्यास ग्रहण कर लिया था किंतु वह सफल नहीं हो सके। अगले जन्म में उन्हें उत्तम ब्राह्मण कुल में जन्म लेना पड़ा और वह जड़ भरत कहलाए क्योंकि वह एकांतवास करते थे तथा किसी से बोलते न थे। बाद में राजा रहूगण ने इन्हें महानतम योगी के रूप में पाया। उनके जीवन में यह पता चलता है कि दिव्य प्रयास अथवा योगाभ्यास कभी व्यर्थ नहीं जाता। भगवत्कृपा से योगी को कृष्णभावनामृत में पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने के बारम्बार सुयोग प्राप्त होते रहते हैं।
(क्रमश:)