श्रीमद्भगवद्गीता: शुद्ध भक्त वही जो फल की इच्छा न करे

Edited By Punjab Kesari,Updated: 20 Nov, 2017 03:46 PM

srimadbhagwadgita the pure devotee is the one who does not wish for the fruit

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 7: भगवद्ज्ञान सत्या श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते। लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान्।। 22।।

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप


व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद 
अध्याय 7: भगवद्ज्ञान 


सत्या श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान्।। 22।।

 

अनुवाद एवं तात्पर्य
ऐसी श्रद्धा से समन्वित वह देवता विशेष की पूजा करने का यत्न करता है और अपनी इच्छा की पूर्ति करता है। किंतु वास्तविकता तो यह है कि ये सारे लाभ केवल मेरे द्वारा प्रदत्त हैं।

 

देवतागण परमेश्वर की अनुमति के बिना अपने भक्तों को वर नहीं दे सकते। जीव भले ही यह भूल जाए कि प्रत्येक वस्तु परमेश्वर की संपत्ति है किंतु देवता इसे नहीं भूलते। अत: देवताओं की पूजा तथा वांछित फल की प्राप्ति देवताओं के कारण नहीं, अपितु उनके माध्यम से भगवान के कारण होती है।

 

शुद्ध भक्त आवश्यकता पड़ने पर परमेश्वर से ही याचना करता है परंतु वर मांगना शुद्ध भक्त का लक्षण नही हैं। जीव सामान्यतय: देवताओं के पास इसलिए जाता है क्योंकि वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए पागल होता है। ऐसा तब होता है जब जीवन अनुचित कामना करता है जिसे स्वयं भगवान भी पूरा नहीं कर पाते।

 

चैतन्य चरितामृत में कहा गया है कि जो व्यक्ति परमेश्वर की पूजा के साथ-साथ भौतिक भोग की कामना करता है वह परस्पर विरोधी इच्छाओं वाला होता है। परमेश्वर की भक्ति तथा देवताओं की पूजा समान स्तर पर नहीं हो सकती, क्योंकि देवताओं की पूजा भौतिक है और परमेश्वर की भक्ति नितांत आध्यात्मिक है।

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