जब भगवान के पार्षद बन गए राक्षस, कठोर तपस्या से स्वर्गलोक में देवता हुए त्रस्त

Edited By Punjab Kesari,Updated: 13 Jun, 2017 01:11 PM

story of jai vijay

ब्रह्मा के पुत्र सनकादिक मुनियों ने एक बार भगवान के पार्षद जय-विजय को असुर हो जाने का शाप दिया था। दिति के दोनों पुत्र हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु ही त्रेता युग में रावण एवं कुंभकर्ण के रूप में जन्मे थे। द्वापर में

ब्रह्मा के पुत्र सनकादिक मुनियों ने एक बार भगवान के पार्षद जय-विजय को असुर हो जाने का शाप दिया था। दिति के दोनों पुत्र हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु ही त्रेता युग में रावण एवं कुंभकर्ण के रूप में जन्मे थे। द्वापर में उन्होंने ही शिशुपाल एवं दंतवक्र के रूप में जन्म लिया था। हिरण्याक्ष का वध वाराह भगवान ने किया था। अपने भाई के मरने पर हिरण्यकशिपु को बड़ा क्रोध आया। उसने भाई का बदला लेने की प्रतिज्ञा की। 
उसने विकराल रूप प्रकट किया और लगातार भगवान विष्णु की निंदा करने लगा। अपने भाई हिरण्याक्ष की पत्नियों, पुत्रों तथा अपनी माता दिति को शोकमग्र देख कर हिरण्यकशिपु उन्हें सांत्वना देकर स्वयं अजर-अमर होकर भगवान विष्णु पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से मंदराचल पर्वत पर तप करने चला गया। वह एक पैर के अंगूठे से पृथ्वी पर खड़ा होकर आकाश की ओर दोनों हाथ उठाए तप करने लगा।


हिरण्यकशिपु की कठोर तपस्या से स्वर्गलोक में देवता त्रस्त हो गए। तपस्या के ताप से हिरण्यकशिपु के आसपास का सारा वातावरण जलने लगा। नदी एवं समुद्र का पानी तक खौलने लगा। पृथ्वी कांपने लगी। ग्रह-तारे टूटने लगे। दसों दिशाओं में मानो आग लग गई हो। देवता भी जलने लगे। वे घबराकर ब्रह्मा के पास गए और कहने लगे, ‘‘हे जगतपिता! हिरण्यकशिपु के इस घोर तप से तीनों लोक त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। वह अपनी तपस्या से ब्रह्मा का पद प्राप्त करके आपके लोक में रहना चाहता है।’’


ब्रह्मा अपने साथ में दक्ष और भृगु को लेकर हिरण्यकशिपु के तप स्थान पर गए। दीमक, मिट्टी, घास, बांस आदि से उसका शरीर ढक गया था। वे उसे देख ही नहीं सके। उसकी त्वचा, मांस आदि को चींटियां खा गई थीं। वह अपने तप से तीनों लोकों को तपा रहा था।


ब्रह्मा ने कहा, ‘‘हिरण्यकशिपु! उठो, तुम्हारी तपस्या पूर्ण हो गई है। तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं। तुम जो मांगोगे, वही वर दूंगा। केवल तुम्हें अमर नहीं कर सकता।’’ 


यह कहते हुए उन्होंने अपने कमंडल से मिट्टी के उस ढेर पर जल छिड़क दिया। तब वह युवा, बलिष्ठ दैत्य उठ कर खड़ा हो गया। ब्रह्या को प्रणाम करके उसने गद्गद् होकर कहा, ‘‘आप अनादि, अनंत एवं सर्वज्ञ हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूं। आप मुझे यह वरदान दें कि आपके उत्पन्न किए हुए किसी भी प्राणी से चाहे वह मनुष्य हो या पशु, देवता, दैत्य, नाग आदि किसी से भी मेरी मृत्यु न हो, भीतर, बाहर दिन में, रात्रि में, किसी भी जीव से, किसी भी हथियार से, पृथ्वी तथा आकाश में कहीं भी मेरी मृत्यु न हो, युद्ध में कोई मुझे जीत न सके, मैं एकछत्र सम्राट बनकर पृथ्वी पर शासन करूं। इंद्र आदि देवता मेरे सामने टिक न सकें। तपस्वियों तथा योगियों को जो ऐश्वर्य प्राप्त हैं वही मुझे भी प्राप्त हों।’’


ब्रह्मा ने कहा, ‘‘तुमने जो वर मांगा है वह अति दुर्लभ है, फिर भी तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर तुमको मैं यही वर देता हूं।’’


ब्रह्मा अपने लोक चले गए। हिरण्यकशिपु अब अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार भाई के वध का बदला लेने के लिए निकल पड़ा। उसने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। इंद्र को हराकर, एकछत्र सम्राट बन वह स्वर्ग में रहने लगा। देवता भी उसकी पूजा करने लगे। उसकी शक्ति इतनी प्रबल हो गई थी कि ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के अतिरिक्त सभी लोकपाल, गंधर्व, सिद्ध, चारण, अप्सराएं उसकी स्तुति करते रहते। वह स्वयं यज्ञ की आहूति को ग्रहण करता था। दैत्यराज के कठोर शासन से सभी त्रस्त हो गए।


देवताओं ने भगवान विष्णु की आराधना की। तब आकाशवाणी हुई, ‘‘अभी कुछ दिन और प्रतीक्षा करो। इस दैत्यराज के कर्मों को मैं जानता हूं। शीघ्र ही इसका विनाश हो जाएगा। यह अपने पुत्र प्रह्लाद से शत्रुता करेगा, तब मैं उसका नाश करूंगा।’’

(श्रीमद्भागवत पुराण से)
‘राजा पॉकेट बुक्स’ द्वारा प्रकाशित ‘पुराणों की कथाएं से साभार

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